Saturday, July 30, 2011

गंभीर आरोप असम से कांग्रेस के पूर्व सांसद एम. के. सुब्बा पर हैं

बाबा रामदेव के सहयोगी बालकृष्ण से कहीं ज्यादा गंभीर आरोप असम से कांग्रेस के पूर्व सांसद एम. के. सुब्बा पर हैं। कांग्रेसी सांसद सुब्बा की भारतीय नागरिकता पर सवाल उठाते हुए सीबीआई चार्जशीट तक दायर कर चुकी है। इसके बावजूद सिर्फ एफआईआर के बाद बालकृष्ण का पासपोर्ट रद्द कराने पर आमदा सीबीआई ने सुब्बा का पासपोर्ट रद्द कराने की कोई कोशिश नहीं की है। इससे सीबीआई ने साबित कर दिया है कि वह स्वतंत्र जांच एजेंसी नहीं, बल्कि केंद्र सरकार के इशारे पर काम करने वाला संगठन है। सीबीआई ने अभी तक बालकृष्ण की भारतीय नागरिकता पर उंगली नहीं उठाई है। उनपर केवल पासपोर्ट ऑफिस में जमा की गईं शैक्षिक डिग्रियों के फर्जी होने के प्रमाण हैं। वहीं, सुब्बा के मामले में सीबीआई ने अदालत में चार्जशीट दाखिल कर उनके भारतीय नागरिक नहीं होने का प्रमाण पेश किया है। इसके बावजूद आज तक सीबीआई ने सुब्बा का पासपोर्ट रद्द करने के लिए विदेश मंत्रालय से अनुरोध करने की जरूरत नहीं समझी। सीबीआई की चार्जशीट के बावजूद सुब्बा न सिर्फ अपना बिजनेस आराम से चला रहे हैं, बल्कि एक पूर्व सांसद को मिलने वाले सुविधाओं का लाभ भी ले रहा है। इस मामले में सीबीआई का दोहरापन इस बात से भी साफ हो जाता है कि बालकृष्ण के फर्जी पासपोर्ट में तत्काल कार्रवाई शुरू हो गई लेकिन सुब्बा के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने में एक दशक से भी ज्यादा समय लग गया। लंबे समय तक सुब्बा के मामले में निष्क्रिय रहने पर सीबीआई को सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर गंभीरता से जांच शुरू करनी पड़ी। बाद में अदालत के निर्देश पर ही उसने चार्जशीट भी दाखिल की।

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*SANJAY*
RANCHI-
JHARKHAND
Cell- 09431162589

घोटालों के निष्कि्रय संरक्षक



संवैधानिक दायित्व के पालन में लापरवाही को प्रधानमंत्री का मूल स्वभाव बता रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित
संप्रग सरकार पर भ्रष्टाचार को संस्थागत बनाने के आरोप थे ही, रही-सही कसर पूर्व संचारमंत्री ए राजा ने पूरी कर दी। राजा ने शीर्ष न्यायपीठ के सामने संचार घोटाले के मामले में प्रधानमंत्री को भी शामिल बताया है। गृहमंत्री पी चिदंबरम भी लपेटे में हैं। कांग्रेस ने इसे एक अभियुक्त के बचाव की बयानबाजी बताकर पल्ला झाड़ लिया है। सर्वोच्च न्यायपीठ के सामने प्रधानमंत्री को सहअभियुक्त जैसा प्रस्तुत किया गया है, बावजूद इसके प्रधानमंत्री चुप हैं। आखिरकार राजा के आरोपों पर प्रधानमंत्री का स्पष्टीकरण क्यों नहीं आया? प्रधानमंत्री के मौन का अर्थ स्वीकृति लगाया जा रहा है। ए राजा ने प्रधानमंत्री को साजिश व कर्तव्यपालन में लापरवाही का दोषी ठहराया है। कर्तव्यपालन में लापरवाही मनमोहन सिंह का मूल स्वभाव है। लेकिन प्रधानमंत्री के विरुद्ध साजिश का आरोप संगीन मामला है। केंद्र सरकार सीधे भ्रष्टाचार के लपेटे में है। राजा के वकील ने कोर्ट से गृहमंत्री को भी गवाह बनाने की मांग की है। पी चिदंबरम पहल करें, कोर्ट के सामने जाएं, न्यायिक कार्यवाहियों में उठे प्रश्नों का उत्तर दें। संविधान निर्माताओं ने ही सरकारी जवाबदेही को संसदीय जनतंत्र का मुख्य आदर्श बताया था। प्रधानमंत्री से कोई अपेक्षा करना बेकार है। वह प्रधानमंत्री पद के वास्तविक प्राधिकार से वंचित हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री की तरह कभी कोई काम नहीं किया। राष्ट्रमंडल घोटाले से देश की अंतरराष्ट्रीय बदनामी हुई। भ्रष्टाचार और लूट के महोत्सव उनकी जानकारी में थे, लेकिन वह लाचार होकर टुकुर-टुकुर ताकते रहे। दूरसंचार घोटाले से वह अवगत थे। ए राजा का वक्तव्य पर्याप्त साक्ष्य है। मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति धांधली में वह शामिल थे। उन्होंने गलत काम को रोकने में कभी कोई हस्तक्षेप नहीं किया। कर्तव्यपालन में ऐसी लापरवाही किसी भी जनतांत्रिक देश के प्रमुख ने नहीं की। उन्होंने अपनी तरफ से भी कभी कोई सही काम नहीं किया। वास्तविक सत्ता सोनिया गांधी ने चलाई, जिम्मेदार वह बने। अच्छाई का श्रेय सोनिया, राहुल ले गए और सारे गलत कामों के जिम्मेदार प्रधानमंत्री बने। उन्होंने सक्रिय, जिम्मेदार और जवाबदेह प्रधानमंत्री होने का कोई प्रयास नहीं किया। पूंजीवादी अर्थशास्त्र की विद्वता व्यावहारिक सत्ता संचालन में काम नहीं आती। वह हरेक मोर्चे पर विफल रहे और वीतरागी संन्यासी की तरह पद से हटने की प्रतीक्षा करते रहे। प्रधानमंत्री करें तो क्या करें? कांग्रेस 1947 से ही ऐसी है। पंडित नेहरू बेशक कामकाजी प्रधानमंत्री थे, लेकिन सत्ता में भ्रष्टाचार की शुरुआत उसी समय हुई। 1949 में नेहरू के खास मंत्री कृष्णमेनन पर 216 करोड़ रुपये के जीप घोटाले का आरोप लगा। लोक लेखा समिति ने दोषी पाया। कुछ दिन बाद वह फिर से मंत्री बने। 1957 में मूंदडा कांड हुआ। वित्तमंत्री टीसी कृष्णमाचारी का त्यागपत्र हुआ। बवाल रुका, वह भी फिर से मंत्री हो गए। कांग्रेस की यही परंपरा आगे चली। इंदिरा गांधी के विरुद्ध नागरवाला कांड राष्ट्रीय चर्चा का विषय बना। इंदिरा गांधी के शासन में ही भ्रष्टाचार को सार्वजनिक स्वीकृति मिली। प्रधानमंत्री राजीव गांधी को बोफोर्स ने घेरा। उन्हीं के कृपापात्र क्वात्रोचि का साथ वर्तमान केंद्रीय सत्ता ने भी दिया। प्रधानमंत्री नरसिंहा राव भी पीछे नहीं रहे। रिश्वत देकर संसद में वोट, लक्खूभाई पाठक कांड और हर्षद मेहता कांड सहित तमाम घोटालों के जरिए उन्होंने कांग्रेस की परंपरा को बढ़ाया, बखूबी सरकार भी चलाई। कांग्रेसी परंपरा के सभी पूर्व प्रधानमंत्री घपलो-घोटालों के सक्रिय संरक्षक थे। लेकिन मनमोहन सिंह ऐसे सभी मामलों के निष्कि्रय संरक्षक हैं। दरअसल निष्कि्रयता ही उनकी पूंजी है। सोनिया गांधी ने उन्हें निष्कि्रय रहने का ही काम सौंपा है। राजनीतिक सक्रियता उनका काम नहीं। चुनाव उन्हें लड़ना नहीं। चुनाव अभियान में उनका उपयोग नहीं। उनका कहीं कोई जनाधार भी नहीं। कांग्रेसी जीत का श्रेय उन्हें मिलना नहीं। हार की जिम्मेदारी के लिए उनसे अच्छा कोई दूसरा बलि का बकरा नहीं। वह सोनिया, राहुल और उनके सहयोगियों की अच्छी बुरी सक्रियता को निर्बाध चलाते रहने की जिम्मेदारी ही निभाते हैं। बेशक भ्रष्टाचार रोकना प्रधानमंत्री की ही जिम्मेदारी है। आतंकवाद, आंतरिक सुरक्षा, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, किसान उत्पीड़न आदि समस्याओं से निपटना भी उनका ही प्राथमिक संवैधानिक कर्तव्य है। सारा देश उनसे सक्रियता की अपेक्षा करता है, लेकिन वह सिर्फ एक ही परिवार के प्रति निष्ठावान हैं। वह खुश हैं कि वह परिवार उनसे खुश है। उनकी निष्कि्रयता ही उनकी विद्वता और विनम्रता है। संसदीय जनतंत्र का मुख्य गुण है-जवाबदेही। शीर्ष भ्रष्टाचार के लिए प्रधानमंत्री जिम्मेदार हैं, लेकिन उन्होंने भ्रष्टाचार के आरोप में किसी मंत्री को नहीं हटाया। कोर्ट ने पहल की तभी कार्रवाई हुई। ए राजा ने सीधे उन पर, गृहमंत्री और सोलीसिटर जनरल पर उंगली उठाई है। बावजूद इसके वह चुप हैं। हाईकमान ने उन्हें चुप रहने को ही कहा है। जाहिर है, कांग्रेस और केंद्र सरकार जनता के प्रति जवाबदेही के संवैधानिक सिद्धांत को नहीं मानते। (लेखक उप्र विधानपरिषद के सदस्य हैं)
source: http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2011-07-29&pageno=8

Jayalalithaa Opposes Communal Violence Bill, Says, It's Fascist PTI


Jayalalithaa Opposes Communal Violence Bill, Says, It's Fascist
PTI
[ Updated 29 Jul 2011, 14:59:29 ]



Chennai, Jul 29: Slamming the draft communal violence bill as “fascist”, Tamil Nadu Chief Minister Jayalalithaa today said it would give sweeping powers to the Centre and keep the states under constant threat of dismissal.

In a hard-hitting attack on the proposed bill, Jayalalithaa said that under the garb of preventing communal and targeted violence, the Prevention of Communal Violence Bill was yet another “blatant atttempt” to totally bypass the state governments.

The bill concentrates all powers in the Centre rendering the state governments absolutely powerless and totally at the mercy of the Centre,she said in a strongly-worded statement.

Calling it an “undesirable piece of legislation,”, she said it was being brought in by a Central regime that was running “out of steam and ideas for survival.” The AIADMK chief said it was the “sacred duty” of all those who believed in democracy to oppose it in toto and throw it out “lock, stock and barrel,” at the introduction stage itself.

The bill was aimed at keeping the state governments under the constant threat of dismissal, perhaps because of the Central government’s limited capability to use Article 356 of the Constitution in view of a Supreme Court verdict in this regard, the Chief Minister said.

The Prevention of Communal and Targeted Violence (Access to Justice and Reparations) Bill 2011 sought to give “sweeping powers” to the Central government, to the total exclusion of state governments in handling instances of communal and targeted violence, Jayalalithaa said.

She said this vitiated the norms of Centre-state relations envisaged by the Justice Sarkaria Commission. “The Bill appears to be a new ruse to side-step the judicial constraints imposed on the indiscriminate use of Article 356 (to impose President’s rule) against opposition-ruled states by an antagonistic Centre,” Jayalalithaa said. She expressed fears that the Bill, if it became Law, could be misused by politicial parties at the Centre to create a “volatile” situation in an opposition-governed state.

“If the agitators are put down, the state government would be pilloried for stifling dissent. On the other hand, if violence erupts, it can be dubbed as communal or targeted violence and the state government concerned can be dismissed using the sweeping and wholly subjective provisions of the law,” she said.

“This sort of a Catch-22 situation will never be in the interest of a nation on the threshold of being recognised as a super power of the world. This is nothing but an undemocratic and fascist bill which is against and totally repugnant to the basic principles of the constitution,” Jayalalithaa said.

“I also appeal to all right-thinking political parties cutting across political divides, community leaders, thinkers. the free media and the people of this great nation to see the dangers lurking in this Bill and voice their opposition to it in unambiguous terms,” she said.

Slamming various provisions, including terminology and definitions in the proposed Bill, she said their subjective interpretations could lead to misuse, adding, the very purpose of the law is “unstated.” PTI

Jaya opposes 'fascist' communal violence bill

July 29, 2011

Slamming the draft communal violence bill as "fascist", Tamil Nadu Chief Minister Jayalalithaa on Friday said it would give sweeping powers to the Centre and keep the states under constant threat of dismissal.

In a hard-hitting attack on the proposed bill, Jayalalithaa said that under the garb of preventing communal and targeted violence, the Prevention of Communal Violence Bill was yet another "blatant attempt" to totally bypass the state governments.


The bill concentrates all powers in the Centre rendering the state governments absolutely powerless and totally at the mercy of the Centre, she said in a strongly-worded statement.

Calling it an "undesirable piece of legislation,", she said it was being brought in by a Central regime that was running "out of steam and ideas for survival."

The All India Anna Dravida Munnetra Kazhagam chief said it was the "sacred duty" of all those who believed in democracy to oppose it in toto and throw it out "lock, stock and barrel," at the introduction stage itself.

The bill was aimed at keeping the state governments under the constant threat of dismissal, perhaps because of the Central government's limited capability to use Article 356 of the Constitution in view of a Supreme Court verdict in this regard, the chief minister said.

The Prevention of Communal and Targeted Violence (Access to Justice and Reparations) Bill 2011 sought to give "sweeping powers" to the Central government, to the total exclusion of state governments in handling instances of communal and targeted violence, Jayalalithaa said.

She said this vitiated the norms of Centre-state relations envisaged by the Justice Sarkaria Commission. Section 20, for instance, proposed a "direct assault" on states' autonomy, and was against the spirit of the Constitution, the chief minister added.

It stated that the occurrence of organised communal violence would constitute "internal disturbance," within the meaning of Article 355 (Duty of the Union to protect States against external aggression and internal disturbance) and would always hang like the "sword of Damocles threatening state governments."

The proposed Bill, likely to be presented in the Parliament in the coming session, has drawn lot of flak with critics of the Bill holding that it was "anti-majority."

http://www.rediff.com/news/report/jaya-opposes-fascist-communal-violence-bill/20110729.htm

माओवाद से आधी-अधूरी लड़ाई

माओवाद से आधी-अधूरी लड़ाई
माओवाद पर अंकुश लगाने में विफलता के लिए सरकार की रणनीति को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं बीआर लाल
आज नक्सलवाद और माओवाद की समस्या एक कैंसर का रूप लेती नजर आ रही है। सरकार इस रोग को खत्म करने का जितना प्रयास करती है, यह उतना ही अधिक फैलता जाता है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर कमी कहां है और समाधान क्या है? यहां जो सबसे बड़ी भूल की जा रही है वह है नक्सलवाद और माओवाद को एक मान लेना। यही कारण है कि नक्सलवाद को खत्म करने के लिए चलाए जा रहे अभियान विफल और निष्प्रभावी हो रहे हैं। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1990 में मात्र 16 जिलों तक सीमित नक्सलवाद आज देश के 240 जिलों में फैल चुका है। नक्सलवाद के खिलाफ कोई भी रणनीति बनाने से पहले हमें समझना होगा कि माओवाद एक राजनीतिक विचारधारा है जिनका लक्ष्य हिंसा के माध्यम से सत्ता हथियाना है, जबकि नक्सलवादी वे लोग हैं जो देश के विकास का हिस्सा नहीं बन सके हैं। नक्सलवादी बेहद निर्धन, कमजोर और असहाय हैं जो अपनी रोजी-रोटी और तरक्की चाहते हैं। नक्सलवादी विकास और रोजगार चाहते हैं, जबकि माओवादी विकास विरोधी हैं। इस बुनियादी फर्क को समझना होगा। नक्सलवाद में शामिल ज्यादातर लोग जंगलों में रहने वाले आदिवासी और घुमक्कड़ जनजातियों से हैं। माओवादी अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए इस वंचित वर्ग को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। वे इन लोगों को बड़ी आसानी से बहला-फुसला लेते हैं। इस तरह माओवादियों को बहुत कम पैसे में उनकी लड़ाई में साथ देने वाले नक्सली मिल जाते हैं। माओवादी प्रत्येक नक्सली को एक हजार रुपये और उनके परिवार वालों को दो हजार रुपये प्रति माह देते हैं। इस तरह एक नक्सली पर साल भर में कुल 36,000 रुपये खर्च होते हैं। एक अनुमान के मुताबिक पूरे देश में करीब 20 हजार नक्सली हैं। इस तरह पूरे साल उन्हें करीब 72 करोड़ रुपये खर्च करके एक बड़ी सेना मिल जाती है जो अनजाने में अपने ही देशवासियों के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे होते हैं। परंतु सरकार में बैठे नीति-निर्माता इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं कि उन्हें लड़ाई नक्सलियों से लड़नी है या माओवादियों से? आजादी के बाद हम आर्थिक तरक्की की रफ्तार तेज करने में लगे रहे, लेकिन भूल गए कि पिछड़े क्षेत्र के लोगों को भी विकास में भागीदार बनाया जाए। आज यदि पूर्वोत्तर के हिस्सों से लेकर देश के कुछ अंदरूनी और सीमावर्ती राज्यों में अलगाववाद, नक्सलवाद और उग्रवाद को हवा मिल रही है और उन्हें विदेशियों से मदद मिल रही है तो इसके लिए दोष आखिर किसका है? केवल छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद प्रभावित 1.5 करोड़ लोग हैं। यदि हम इस आबादी को आजीविका के साधन के साथ-साथ यह भरोसा दे सकें कि उन्हें उनकी भूमि से बेदखल नहीं किया जाएगा, उनके क्षेत्र के संसाधनों की लूट नहीं होने दी जाएगी तथा वहां के खनिजों व प्राकृतिक संसाधनों से होने वाली कमाई में उन्हें भी हिस्सा मिलेगा तो शायद ही कोई नक्सली बनना चाहेगा। माओवादी जितना पैसा नक्सलियों और हथियारों की खरीद पर खर्च करते हैं वह विदेश से नहीं आता, बल्कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से लूटे गए प्राकृतिक संसाधनों की एवज में आता है। इस पैसे का सबसे बड़ा स्रोत खनन माफिया उपलब्ध कराते हैं। इसके अलावा विकास के लिए आए सरकारी धन, छोटे-मोटे बिजनेसमैन व नेताओं आदि से भी पैसा जुटाया जाता है। साफ है कि माओवाद-नक्सलवाद से लड़ाई के लिए हमें एक अलग योजना बनाने की जरूरत है। एक तरह जहां हमें नक्सलियों की नियुक्ति के लिए तैयार जमीन यानी रिक्रूटिंग ग्राउंड को खत्म करना होगा वहीं दूसरी ओर इनके आर्थिक स्रोतों को भी बंद करना होगा। इसके लिए दो स्तर पर कार्रवाई करनी होगी। सर्वप्रथम विकास कार्यो में तेजी लाई जाए ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार मिले। इसके लिए नए उद्योग-धंधों के साथ-साथ डेयरी फॉर्म, मछली पालन, हार्टीकल्चर जैसे रोजगारपरक बुनियादी ढांचे का विकास कम पूंजी में आसानी से किया जा सकता है। शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के विकास के लिए भी कदम उठाए जाएं। इसके साथ-साथ खनन माफियाओं को खत्म करने व प्राकृतिक संसाधनों की लूट को रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएं, क्योंकि यही वह स्रोत है जिससे माओवादियों को लड़ाई के लिए पैसा मिलता है। यही क्षेत्र काले धन के सृजन का सबसे बड़ा श्चोत भी है। पूरे देश में 22 करोड़ टन कच्चे लोहे का खनन होता है, जिसमें से अकेले छत्तीसगढ़ का हिस्सा लगभग 4 करोड़ टन का है। एक टन लोहे पर 6-7 हजार की चोरी होती है। इस तरह पूरे देश में करीब एक लाख 10 हजार करोड़ रुपये का और अकेले छत्तीसगढ़ में करीब 20 हजार करोड़ का काला धन खनन ठेकेदारों द्वारा प्रति वर्ष सृजित किया जाता है। इसका एक छोटा हिस्सा, करीब दो हजार करोड़ रुपया, माओवादियों को मिलता है। इससे सहज ही समझा जा सकता है कि नक्सली क्षेत्र का ज्यादा विस्तार खनिज प्रधान इलाकों में ही क्यों हुआ है? यदि माओवादियों को एक लाख नक्सली भी तैयार करने हों तो उन्हें केवल 360 करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी। इसके अलावा ट्रेनिंग और हथियार खरीदने के लिए शेष रकम जुटाना भी उनके लिए कठिन काम नहीं होगा। नक्सलियों का विस्तार छत्तीसगढ़ से सटे हुए आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और बिहार के एक लाख 50 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में है। हम 20 हजार नक्सलियों से ही नहीं लड़ पा रहे हैं। यदि यह संख्या एक लाख हो गई तो क्या होगा इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। केवल ताकत और पुलिस बल के आधार पर नक्सलवाद को काबू में करने की नीति पर सरकार को विचार करने की आवश्यकता है, क्योंकि माओवादियों को तो ताकत से कुचला जा सकता है पर नक्सलवादियों को नहीं। यदि ऐसा होता तो 1967 से शुरू हुए इस आंदोलन का इतना विस्तार नहीं होता। 4 मार्च, 1966 को मिजोरम में मात्र ढाई लाख विद्रोहियों को काबू में करने के लिए बमबारी तक की गई, लेकिन उन्हें हथियारों से दबाया नहीं जा सका और अंतत: 1985 में सरकार को बातचीत की मेज पर बैठना ही पड़ा। कुछ ऐसी ही स्थिति माओवादियों के मामले में भी बनती नजर आ रही है। बेहतर हो कि सरकार समय रहते इस समस्या पर समग्रता में विचार करे ताकि समस्या के समाधान की सही रणनीति बनाई जा सके। (लेखक हरियाणा के पूर्व डीजीपी और सीबीआइ के पूर्व संयुक्त निदेशक हैं)
 http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2011-07-30&pageno=८
माओवाद पर अंकुश लगाने में विफलता के लिए सरकार की रणनीति को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं बीआर लाल
आज नक्सलवाद और माओवाद की समस्या एक कैंसर का रूप लेती नजर आ रही है। सरकार इस रोग को खत्म करने का जितना प्रयास करती है, यह उतना ही अधिक फैलता जाता है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर कमी कहां है और समाधान क्या है? यहां जो सबसे बड़ी भूल की जा रही है वह है नक्सलवाद और माओवाद को एक मान लेना। यही कारण है कि नक्सलवाद को खत्म करने के लिए चलाए जा रहे अभियान विफल और निष्प्रभावी हो रहे हैं। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1990 में मात्र 16 जिलों तक सीमित नक्सलवाद आज देश के 240 जिलों में फैल चुका है। नक्सलवाद के खिलाफ कोई भी रणनीति बनाने से पहले हमें समझना होगा कि माओवाद एक राजनीतिक विचारधारा है जिनका लक्ष्य हिंसा के माध्यम से सत्ता हथियाना है, जबकि नक्सलवादी वे लोग हैं जो देश के विकास का हिस्सा नहीं बन सके हैं। नक्सलवादी बेहद निर्धन, कमजोर और असहाय हैं जो अपनी रोजी-रोटी और तरक्की चाहते हैं। नक्सलवादी विकास और रोजगार चाहते हैं, जबकि माओवादी विकास विरोधी हैं। इस बुनियादी फर्क को समझना होगा। नक्सलवाद में शामिल ज्यादातर लोग जंगलों में रहने वाले आदिवासी और घुमक्कड़ जनजातियों से हैं। माओवादी अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए इस वंचित वर्ग को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। वे इन लोगों को बड़ी आसानी से बहला-फुसला लेते हैं। इस तरह माओवादियों को बहुत कम पैसे में उनकी लड़ाई में साथ देने वाले नक्सली मिल जाते हैं। माओवादी प्रत्येक नक्सली को एक हजार रुपये और उनके परिवार वालों को दो हजार रुपये प्रति माह देते हैं। इस तरह एक नक्सली पर साल भर में कुल 36,000 रुपये खर्च होते हैं। एक अनुमान के मुताबिक पूरे देश में करीब 20 हजार नक्सली हैं। इस तरह पूरे साल उन्हें करीब 72 करोड़ रुपये खर्च करके एक बड़ी सेना मिल जाती है जो अनजाने में अपने ही देशवासियों के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे होते हैं। परंतु सरकार में बैठे नीति-निर्माता इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं कि उन्हें लड़ाई नक्सलियों से लड़नी है या माओवादियों से? आजादी के बाद हम आर्थिक तरक्की की रफ्तार तेज करने में लगे रहे, लेकिन भूल गए कि पिछड़े क्षेत्र के लोगों को भी विकास में भागीदार बनाया जाए। आज यदि पूर्वोत्तर के हिस्सों से लेकर देश के कुछ अंदरूनी और सीमावर्ती राज्यों में अलगाववाद, नक्सलवाद और उग्रवाद को हवा मिल रही है और उन्हें विदेशियों से मदद मिल रही है तो इसके लिए दोष आखिर किसका है? केवल छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद प्रभावित 1.5 करोड़ लोग हैं। यदि हम इस आबादी को आजीविका के साधन के साथ-साथ यह भरोसा दे सकें कि उन्हें उनकी भूमि से बेदखल नहीं किया जाएगा, उनके क्षेत्र के संसाधनों की लूट नहीं होने दी जाएगी तथा वहां के खनिजों व प्राकृतिक संसाधनों से होने वाली कमाई में उन्हें भी हिस्सा मिलेगा तो शायद ही कोई नक्सली बनना चाहेगा। माओवादी जितना पैसा नक्सलियों और हथियारों की खरीद पर खर्च करते हैं वह विदेश से नहीं आता, बल्कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से लूटे गए प्राकृतिक संसाधनों की एवज में आता है। इस पैसे का सबसे बड़ा स्रोत खनन माफिया उपलब्ध कराते हैं। इसके अलावा विकास के लिए आए सरकारी धन, छोटे-मोटे बिजनेसमैन व नेताओं आदि से भी पैसा जुटाया जाता है। साफ है कि माओवाद-नक्सलवाद से लड़ाई के लिए हमें एक अलग योजना बनाने की जरूरत है। एक तरह जहां हमें नक्सलियों की नियुक्ति के लिए तैयार जमीन यानी रिक्रूटिंग ग्राउंड को खत्म करना होगा वहीं दूसरी ओर इनके आर्थिक स्रोतों को भी बंद करना होगा। इसके लिए दो स्तर पर कार्रवाई करनी होगी। सर्वप्रथम विकास कार्यो में तेजी लाई जाए ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार मिले। इसके लिए नए उद्योग-धंधों के साथ-साथ डेयरी फॉर्म, मछली पालन, हार्टीकल्चर जैसे रोजगारपरक बुनियादी ढांचे का विकास कम पूंजी में आसानी से किया जा सकता है। शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के विकास के लिए भी कदम उठाए जाएं। इसके साथ-साथ खनन माफियाओं को खत्म करने व प्राकृतिक संसाधनों की लूट को रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएं, क्योंकि यही वह स्रोत है जिससे माओवादियों को लड़ाई के लिए पैसा मिलता है। यही क्षेत्र काले धन के सृजन का सबसे बड़ा श्चोत भी है। पूरे देश में 22 करोड़ टन कच्चे लोहे का खनन होता है, जिसमें से अकेले छत्तीसगढ़ का हिस्सा लगभग 4 करोड़ टन का है। एक टन लोहे पर 6-7 हजार की चोरी होती है। इस तरह पूरे देश में करीब एक लाख 10 हजार करोड़ रुपये का और अकेले छत्तीसगढ़ में करीब 20 हजार करोड़ का काला धन खनन ठेकेदारों द्वारा प्रति वर्ष सृजित किया जाता है। इसका एक छोटा हिस्सा, करीब दो हजार करोड़ रुपया, माओवादियों को मिलता है। इससे सहज ही समझा जा सकता है कि नक्सली क्षेत्र का ज्यादा विस्तार खनिज प्रधान इलाकों में ही क्यों हुआ है? यदि माओवादियों को एक लाख नक्सली भी तैयार करने हों तो उन्हें केवल 360 करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी। इसके अलावा ट्रेनिंग और हथियार खरीदने के लिए शेष रकम जुटाना भी उनके लिए कठिन काम नहीं होगा। नक्सलियों का विस्तार छत्तीसगढ़ से सटे हुए आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और बिहार के एक लाख 50 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में है। हम 20 हजार नक्सलियों से ही नहीं लड़ पा रहे हैं। यदि यह संख्या एक लाख हो गई तो क्या होगा इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। केवल ताकत और पुलिस बल के आधार पर नक्सलवाद को काबू में करने की नीति पर सरकार को विचार करने की आवश्यकता है, क्योंकि माओवादियों को तो ताकत से कुचला जा सकता है पर नक्सलवादियों को नहीं। यदि ऐसा होता तो 1967 से शुरू हुए इस आंदोलन का इतना विस्तार नहीं होता। 4 मार्च, 1966 को मिजोरम में मात्र ढाई लाख विद्रोहियों को काबू में करने के लिए बमबारी तक की गई, लेकिन उन्हें हथियारों से दबाया नहीं जा सका और अंतत: 1985 में सरकार को बातचीत की मेज पर बैठना ही पड़ा। कुछ ऐसी ही स्थिति माओवादियों के मामले में भी बनती नजर आ रही है। बेहतर हो कि सरकार समय रहते इस समस्या पर समग्रता में विचार करे ताकि समस्या के समाधान की सही रणनीति बनाई जा सके। (लेखक हरियाणा के पूर्व डीजीपी और सीबीआइ के पूर्व संयुक्त निदेशक हैं)
 http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2011-07-30&pageno=८

दुर्लभ औषधियों का पेटेंट अंडमान की वानस्पतिक संपदा पर मुकुल व्यास की टिप्पणी

अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में रहने वाले आदिवासियों के संरक्षण के साथ-साथ उनके पारंपरिक ज्ञान और तौरतरीकों को सहेज कर रखना बहुत जरूरी है। इन द्वीप समूहों की जैव-विविधता दुनिया में सबसे अनूठी है। यहां सैकड़ों किस्म की जड़ी-बूटियां और औषधि गुण वाले पेड़-पौधे पाए जाते हैं। यहां के आदिवासियों ने इन जड़ी-बूटियों के मिश्रण से कई तरह की दवाएं विकसित की हंै और वे सैकड़ों वर्षो से विभिन्न रोगों के उपचार के लिए इन दवाओं का इस्तेमाल कर रहे हैं। आदिवासियों की इन पारंपरिक चिकित्सा विधियों की तरफ अब सरकार का भी ध्यान गया है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने इन अनोखी चिकित्सा विधियों के पेटेंट हासिल करने की योजना बनाई है। परिषद के क्षेत्रीय चिकित्सा अनुसंधान ने अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह के आदिवासियों के लिए एक सामुदायिक जैव विविधता रजिस्टर बनाने का काम शुरू किया है। इसमें पारंपरिक उपचार विधियों का ब्यौरा दर्ज किया जाएगा। रजिस्टर में यह रिकार्ड रखा जाएगा कि औषधि गुण वाली जड़ी-बूटियों के स्थानीय नाम क्या हैं। जड़ी-बूटियों के मिश्रण से दवाएं किस तरह तैयार की जाती हैं और कितने लोगों का इन विधियों से सफल इलाज किया गया। इनके अलावा रजिस्टर में पारंपरिक आदिवासी चिकित्सक या ओझा के फोटो के साथ उसका व्यक्तिगत विवरण भी दिया जाएगा। भारतीय वैज्ञानिकों के एक दल ने हाल ही में कार निकोबार द्वीप के 11 गांवों का दौरा किया था, जहां आदिम निकोबारी आदिवासी रहते हैं। वैज्ञानिकों ने यहां आदिवासियों द्वारा प्रयोग में लाई जा रही 124 जड़ी-बूटियों का ब्यौरा एकत्र किया। आदिवासी इनका इस्तेमाल 34 बीमारियों के इलाज के लिए करते हैं। वैज्ञानिकों ने 42 ऐसे लोगों अथवा ओझाओं के भी इंटरव्यू लिए, जो इन दवाओं से मरीजों का इलाज करते हैं। वैज्ञानिक विभिन्न बीमारियों के इलाज में प्रयुक्त किए जाने वाले पौधों और उनके हिस्सों को संग्रहीत भी कर रहे हैं। उन्होंने इन पौधों पर अनुसंधान करने के लिए इनका बगीचा भी लगाया है। आदिवासियों की चिकित्सा विधियों का रिकार्ड तैयार करना एक बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य है। इसके लिए सभी आदिवासी समूहों तक पहुंचना जरूरी होगा। सरकार इस प्रोजेक्ट पर 38 लाख रुपये खर्च करेगी। आदिवासियों द्वारा तैयार की जाने वाली ज्यादातर दवाएं पेड़-पौधों के विभिन्न हिस्सों का मिश्रण होती हैं। हर बीमारी के लिए दवा अलग होती है और इनके प्रयोग की अवधि भी हर बीमारी में अलग-अलग होती है। वैज्ञानिकों को हर चीज को बारीकी से नोट करना पड़ेगा और खुद अनुसंधान करके यह बताना पड़ेगा कि ये पारंपरिक औषधियां कारगर क्यों होती है। पूरा विवरण तैयार होने और वैज्ञानिक पुष्टि के बाद ही चिकित्सा अनुसंधान परिषद इन दवाओं के पेटेंट के लिए आवेदन करेगी। पेटेंट पारंपरिक आदिवासी ओझाओं के नाम से लिए जाएंगे। आदिवासी ओझाओं के ज्ञान को उन्हीं के नाम से रजिस्टर कराया जाना आवश्यक है ताकि कोई भी व्यक्ति उनके ज्ञान का दुरुपयोग नहीं कर सके। यदि इस ज्ञान के आधार पर कोई प्रोडक्ट तैयार किया जाता है और इसके लिए कोई बौद्धिक संपदा अधिकार प्राप्त किया जाता है तो पारंपरिक आदिवासी चिकित्सकों या ओझाओं के नाम आविष्कारक के रूप में दर्ज करने होंगे और प्रोडक्ट से होने वाले लाभ उनके साथ भी बांटने होंगे। अंडमान और निकोबार द्वीप समूह का करीब 86 फीसदी हिस्सा संरक्षित घने जंगलों का है। इन द्वीपों में औषधि मूल्य के करीब 170 पेड़-पौधों की पहचान की गई है। द्वीपों में रहने वाली आदिवासियों ने न सिर्फ इन जड़ी-बूटियों को खोजा, बल्कि उनके चिकित्सीय उपयोग का भी पता लगाया। यदि आज अंडमान-निकोबार की जैव-वनस्पति संपदा सही सलामत है तो इसका बहुत कुछ श्रेय आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान और उनके द्वारा किए गए संरक्षण को ही जाता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2011-07-30&pageno=8

Tuesday, July 26, 2011

See how Lokpal Bill can curb the politicians


For your education if you do not know this  ---- See how Lokpal Bill can curb the politicians

Existing System
System Proposed by civil society
No politician or senior officer ever goes to jail despite huge evidence because Anti Corruption Branch (ACB) and CBI directly come under the government. Before starting investigation or initiating prosecution in any case, they have to take permission from the same bosses, against whom the case has to be investigated.
Lokpal at centre and Lokayukta at state level will be independent bodies. ACB and CBI will be merged into these bodies. They will have power to initiate investigations and prosecution against any officer or politician without needing anyone’s permission. Investigation should be completed within 1 year and trial to get over in next 1 year. Within two years, the corrupt should go to jail.
No corrupt officer is dismissed from the job because Central Vigilance Commission, which is supposed to dismiss corrupt officers, is only an advisory body. Whenever it advises government to dismiss any senior corrupt officer, its advice is never implemented.
Lokpal and Lokayukta will have complete powers to order dismissal of a corrupt officer. CVC and all departmental vigilance will be merged into Lokpal and state vigilance will be merged into Lokayukta.
No action is taken against corrupt judgesbecause permission is required from the Chief Justice of India to even register an FIR against corrupt judges.
Lokpal & Lokayukta shall have powers to investigate and prosecute any judge without needing anyone’s permission.
Nowhere to go - People expose corruption but no action is taken on their complaints.
Lokpal & Lokayukta will have to enquire into and hear every complaint.
There is so much corruption within CBI and vigilance departments. Their functioning is so secret that it encourages corruption within these agencies.  
All investigations in Lokpal & Lokayukta shall be transparent. After completion of investigation, all case records shall be open to public.  Complaint against any staff of Lokpal & Lokayukta shall be enquired and punishment announced within two months.
Weak and corrupt people are appointed as heads of anti-corruption agencies.
Politicians will have absolutely no say in selectionsof Chairperson and members of Lokpal & Lokayukta. Selections will take place through a transparent and public participatory process.
Citizens face harassment in government offices. Sometimes they are forced to pay bribes. One can only complaint to senior officers. No action is taken on complaints because senior officers also get their cut.
Lokpal & Lokayukta will get public grievances resolved in time bound manner, impose a penalty of Rs 250 per day of delay to be deducted from the salary of guilty officer and award that amount as compensation to the aggrieved citizen.
Nothing in law to recover ill gotten wealth. A corrupt person can come out of jail and enjoy that money.
Loss caused to the government due to corruption will be recovered from all accused.
Small punishment for corruption-Punishment for corruption is minimum 6 months and maximum 7 years.
Enhanced punishment - The punishment would be minimum 5 years and maximum of life imprisonment.

Frustrated after converted to Islam, Family returns to Hinduism at Udup


Udupi:  For his love for a Muslim girl, he took no time to leave his mother religion. 5 years ago Prashanth Shetty married his lover Mushra.
He got converted to Islam, appeared in a new name and new Muslim style. After 5 years he realised the situation, was frustrated to be a Muslim 
decided to return along with his wife and kids.
14udupi family.jpg

In a simple religious ceremony of reconversion (Paravartan) at Saralebettu Shivapadi Sri Umamaheshwari Temple near Manipal of Udupi district in Karnataka, family of Prashanth Shetty voluntarily returned to Hinduism. The family signed a letter stating the acceptance of Hinduism at the temple.

Mushra now called with a new name Prathibha Shetty, elder son Naveen Shetty (Mohammed Iqbual), second son Umesh Shetty (Mohammed Irshan),  daughter Prathima Shetty (Fathima Yasmin), and younger son Suresh (Mohammed Jalaluddeen) are now returned to Hinduism.

‘I am happy to be a Hindu; my husband never forced me to live with any restrictions. Where my husband goes i will follow him as a wife’ says Prathibha Shetty.
During the ceremony Jilla Sanghachalak of RSS Sri Shamhu Shetty, VHP district General Secretary Muttar Ganesh Kini,  Municipal corporator Shyam Prasad Kudva and few others were present.

कृपया प्रत्येक पंक्ति को सजग-सचेत होकर पढ़ें. अवश्य पढ़ें और अपने भारत-मित्रों को भी पढ़ाएँ..


कृपया प्रत्येक पंक्ति को सजग-सचेत होकर पढ़ें.
अवश्य पढ़ें और अपने भारत-मित्रों को भी पढ़ाएँ...

*साम्प्रदायिक और लक्षित हिंसा अधिनियम,२०११ - (२१वीं शताब्दी का काला कानून) *
*:: श्री विजय कुमार शर्मा
*
सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा प्रस्तावित इस
विधेयक को केन्द्रीय सरकार ने स्वीकार कर लिया है। इस विधेयक का उद्देश्य बताया
गया है कि यह देश में साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने में सहायक सिद्ध होगा। इसको
अध्ययन करने पर ध्यान में आता है कि यदि दुर्भाग्य से यह पारित हो जाता है तो
इसके परिणाम केवल विपरीत ही नहीं होंगे अपितु देश में साम्प्रदायिक विद्वेष की
खाई इतनी चौडी हो जायेगी जिसको पाटना असम्भव हो जायेगा।यहां तक कि एक प्रमुख
सैक्युलरिस्ट पत्रकार,शेखर गुप्रा ने भी स्वीकार किया है कि,”इस बिल से समाज का
साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण होगा। इसका लक्ष्य अल्पसंख्यकों के वोट बैंक को
मजबूत करने के अलावा हिन्दू संगठनों और हिंदू नेताओं का दमन करना है।

जिस प्रकार सरकार की रुचि भ्रष्टाचार को समाप्त करने की जगह भ्रष्टाचार को
संरक्षण देकर उसके विरुद्ध आवाज उठाने वालों के दमन में है,उसी प्रकार यह सरकार
साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने की जगह हिंसा करने वालों को संरक्षण और उनके
विरुद्ध आवाज उठाने वाले हिंदू संगठनों और उनके नेताओं को इसके माध्यम से
कुचलना चाहती है। इस अधिनियम के माध्यम से केन्द्र राज्य सरकारों के कार्यों
में हस्तक्षेप कर देश के संघीय ढांचे को ध्वस्त कर देगा। यह भारतीय संविधान की
मूल भावना को तहस-नहस करता हुआ भी दिखाई दे रहा है। यह अधिनियम एक नई तानाशाही
को तो जन्म देगा ही, यह हिन्दू समाज की भावनाओं और उनको वाणी देने वाले हिन्दू
संगठनों को भी कुचल देगा।

जिस राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अनुशंसा(आदेश) पर इस विधेयक को लाया जा रहा है,
वह एक समानांतर सरकार की तरह काम कर रही है। यह न तो एक चुनी हुई संस्था है और
न ही इसके सभी सदस्य जनता के द्वारा चुने गये प्रतिनिधी हैं। सरकार जो तर्क
“सिविल सोसाईटी” या अन्य जन संगठनों के विरुद्ध प्रयोग करती है, वह स्वयं उस के
विपरीत आचरण कर रही है।

राष्ट्रीय सलाहकार परिषद एक असंवैधानिक महाशक्ति है जो बिना किसी जवाबदेही के
सलाह की आड में आदेश देती है। केन्द्र सरकार दासत्व भाव से उनके आदेशों को लागू
करने के लिये हमेशा ही तत्पर रहती है। जिस ड्राफ्ट कमेटी ने इस विधेयक को बनाया
है, उसके सदस्यों के चरित्र का विचार करते ही उनकी नीयत के बारे में किसी संदेह
की गुंजाइश नहीं रहती है। इस समिती में ९ सद्स्य और उनके ४ सलाहकार हैं । इन सब
में समानता के यही बिंदू है कि ये सभी हिंदू संगठनों के घोर विरोधी हैं , हमेशा
गुजरात के हिन्दू समाज को कटघरे में खडा करने के लिये तत्पर रहते हैं और
अल्पसंख्यकों के हितों का एकमात्र संरक्षक दिखने के लिये देश को भी बदनाम करने
में संकोच नहीं करते।

हर्ष मंडेर रामजन्मभूमि आन्दोलन और हिन्दू संगठनों के घोर विरोधी हैं। अनु आगा
जो कि एक सफल व्यवसायिक महिला हैं, गुजरात में मुस्लिम समाज को उकसाने के कारण
ही एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में पहचानी जाती । तीस्ता सीतलवाड और फराह
नकवी की गुजरात में भूमिका सर्वविदित है। उन्होंने न केवल झूठे गवाह तैय्यार
किये हैं अपितु देश विरोधियों से अकूत धनराशी प्राप्त कर झूठे मुकदमे दायर किये
हैं और जांच प्रक्रिया को प्रभावित करने का संविधान विरोधी दुष्कृत्य किया है।
आज इनके षडयंत्रों का पर्दाफाश हो चुका है, ये स्वयं न्याय के कटघरे में कभी भी
खडे हो सकते हैं। ये लोग अपनी खीज मिटाने के लिये किसी भी सीमा तक जा सकते हैं।

जो काम वे न्यायपालिका के माध्यम से नहीं कर सके ,ऐसा लगता है वे इस विधेयक के
माध्यम से करना चाहते हैं। एक प्रकार से इन्होनें अपने कुत्सित इरादों को पूरा
करने के लिये चोर दरवाजे का प्रयोग किया है। इनके घोषित-अघोषित सलाहकारों के
नाम इनका भंडाफोड करने के लिये पर्याप्त हैं।” मुस्लिम इन्डिया” चलाने वाले
सैय्यद शहाबुद्दीन, धर्मान्तरण करने के लिये विदेशों में भारत को बदनाम करने
वाले जोन दयाल , हिन्दू देवी-देवताओं का खुला अपमान करने वाली शबनम हाशमी और
नियाज फारुखी जिस समिती के सलाहकार हों , वह कैसा विधेयक बना सकते हैं इसका
अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।

भारत के बडबोले मंत्री, कपिल सिब्बल द्वारा इस अधिनियम को सार्वजनिक करते हुए
गुजरात के दंगों और उनमें सरकार की कथित भूमिका का उल्लेख करना सरकार की नीयत
को स्पष्ट करता है। ऐसा लगता है कि सारी सैक्युलर ब्रिगेड मिलकर जो काम नहीं कर
सकी, उसे सोनिया इस विधेयक के माध्यम से पूरा करना चाहती हैं। गुजरात के संदर्भ
में सभी कसरतें व्यर्थ जा रही हैं। आरोप लगाने वाले स्वयं आरोपित बनते जा रहे
हैं। कानून के शिकंजे में फंसने की दहशत से वे मरे जा रहे हैं। इस अधिनियम का
प्रारूप देखने से ऐसा लगता है मानो उन्हीं चोट खाये इन तथाकथित मानवाधिकारवादी
ने इसको बनाने के लिये अपनी कलम चलाई है।

इस विधेयक को सार्वजनिक करने का समय बहुत महत्वपूर्ण है। कुछ दिन पूर्व ही
अमेरिका के ईसाईयत के प्रचार के लिये बदनाम “अंतर्राष्ट्रीय धर्म स्वातंत्र्य
आयोग” ने भारत को अपनी निगरानी सूची में रखा है। उन्होंनें भी गुजरात और ओडीसा
के उदाहरण दिये हैं।मानावधिकार का दलाल अमेरिका मानवाधिकारों के सम्बंध में
अमेरिका का दोगलापन जगजाहिर है। इस आयोग को चिंता है ओडिसा और गुजरात की घटनाओं
की, परन्तु उसको कश्मीर के हिन्दुओं या मणिपुर और त्रिपुरा में ईसाई संगठनों
द्वारा हिन्दुओं के नरसंहारों की चिंता क्यों नहीं होती? इससे भी बडे दुर्भाग्य
का विषय यह है कि भारत के किसी सैक्युलर नेता नें अमेरिका को धमकाकर यह नहीं
कहा कि उसको भारत के आन्तरिक मामलों में दखल देने का अधिकार नहीं है। भारत के
मुस्लिम और ईसाई संगठनों नें इसका स्वागत किया है। इससे उनकी भारतबाह्य निष्ठा
स्पष्ट होती है। इस बदनाम आयोग की रिपोर्ट के तुरन्त बाद इस विधेयक को
सार्वजनिक करना, ऐसा लगता मानों ये दोनों एक ही जंजीर की दो कडिया हैं।
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के गलत इरादों का पता इसी बात से लगता है कि इन्होंनें
साम्प्रदायिक दंगों के कारणों का विश्लेषण भी नहीं किया। ड्राफ्ट समिति की
स्दस्य अनु आगा ने अप्रैल ,२००२ में कहा था,” यदि अल्पसंख्यकों को पहले से ही
तुष्टीकरण और अनावश्यक छूटें दी गई हैं तो उस पर पुनर्विचार करना चाहिये। यदि
ये सब बातें बहुसंख्यकों के खिलाफ गई हैं तो उनको वापस लेने का साहस होना
चाहिये। इस विषय पर सार्वजनिक बहस होनी चाहिये।’(इन्डियन एक्स.,८ अप्रैल,२००२)
इन नौ वर्षों में अनु आगा ने इस विषय में कुछ नहीं किया। शायद उन्हें मालूम चल
गया था कि यदि सत्य सामने आ गया तो ऐसा अधिनियम बनाना पडेगा जो प्रस्तावित
अधिनियम के बिल्कुल विपरीत होगा।

यह अधिनियम विदेशी शक्तियों के इशारे पर ही लाया गया है। ऐसा लगता है कि एक
अन्तर्राष्ट्रीय षडयंत्र के आधार पर हिन्दू समाज, हिन्दू संगठनों और हिन्दू
नेताओं को शिकंजे में कसने का प्रयास किया जा रहा है।

इस विधेयक के कुछ खतरनाक प्रावधान निम्नलिखित हैंः

१. यह विधेयक साम्प्रदायिक हिंसा के अपराधियों को अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के आधार
पर बांटने का अपराध करता है। किसी भी सभ्य समाज या सभी राष्ट्र में यह वर्गीकरण
स्वीकार्य नहीं होता। अभी तक यही लोग कहते थे कि अपराधी का कोई धर्म नहीं होता।
अब इस विधेयक में क्यों साम्प्रदायिक हिंसा के अल्पसंख्यक अपराधियों को दंड से
मुक्त रखा गया है? प्रस्तावित विधेयक का अनुच्छेद ८ अल्प्संख्यकों के विरुद्ध
घृणा का प्रचार अपराध मानता है। परन्तु हिन्दुओं के विरुद्ध इनके नेता और संगठन
खुले आम दुष्प्रचार करते हैं। इस विधेयक में उनको अपराधी नहीं माना गया है।
इनका मानना है कि अल्पसंख्यक समाज का कोई भी व्यक्ति साम्प्रदायिक तनाव या
हिंसा के लिये दोषी नहीं है। वास्तविकता ठीक इसके विपरीत है। भारत ही नहीं
सम्पूर्ण विश्व में इनके धार्मिक नेताओं के भाषण व लेखन अन्य धर्मावलम्बियों के
विरुद्ध विषवमन करते हैं। भारत में भी कई न्यायिक निर्णयों और आयोगों की
रिपोर्टों में इनके भाषणों और कृत्यों को ही साम्प्रदायिक तनाव के मूल में
बताया गया है। ओडीसा और गुजरात की जिन घटनाओं का ये बार-बार प्रलाप करते हैं,
उनके मूल में भी आयोगों और न्यायालयों नें अल्पसंख्यकों की हिंसा को पाया है।
मूल अपराध को छोडकर प्रतिक्रिया वाले को ही दंडित करना न केवल देश के कानून के
विपरीत है अपितु किसी भी सभ्य समाज की मान्यताओं के खिलाफ है।

स्वतंत्र भारत के इतिहास में कथित अल्पसंख्यक समाज द्वारा हिंदू समाज पर
१,५०,००० से अधिक हमले हुए हैं तथा हिन्दुओं के मंदिरों पर लगभग ५०० बार हमले
हुए हैं। २०१० में बंगाल के देगंगा में हिंदुओं पर किये गये अत्याचारों को
देखकर यह नहीं लगता कि यह भारत का कोई भाग है। बरेली और अलीगढ में हिन्दू समाज
पर हुऍ हमले ज्यादा पुराने नहीं हुए हैं। एक विदेशी पत्रकार द्वारा विदेश में
ही पैगम्बर साहब के कार्टून बनाने पर भारत में कई स्थानों पर हिन्दुओं पर हमले
किसी से छिपे नहीं हैं। अपराधी को छोडना और पीडित को ही जिम्मेदार मानना क्या
किसी भी प्रकार से उचित माना जा सकता है? एक अन्य सैक्युलर नेता,सैम राजप्पा ने
लिखा है,” आज जबकि देश साम्प्रदायिक हिंसा से मुक्ति चाहता है, यह अधिनियम
मानकर चलता है कि साम्प्रदायिक दंगे बहुसंख्यक के द्वारा होते हैं और उनको ही
सजा मिलनी चाहिये। यह बहुत भेदभावपूर्ण है।”(दी स्टेट्समैन,६जून,२०११)

२. अनुच्छेद ७ के अनुसार यदि एक मुस्लिम महिला के साथ दुर्व्यवहार होता है तो
वह अपराध है, परन्तु हिन्दू महिला के साथ किया गया बलात्कार अपराध नहीं है जबकि
अधिकांश दंगों में हिन्दू महिला की इज्जत ही निशाने पर रहती है।

३. जिस समुदाय की रक्षा के बहाने से इस शैतानी विधेयक को लाया गया है, उसको इस
विधेयक में” समूह” का नाम दिया है। इस समूह में कथित अल्पसंख्यकों के अतिरिक्त
अनुसूचित जातियों और जनजातियों को भी शामिल किया गया है। क्या इन वर्गों में
परस्पर संघर्ष नहीं होता? शिया-सुन्नी के परस्पर खूनी संघर्ष जगजाहिर हैं।
इसमें किसकी जिम्मेदारी तय करेंगे? अनुसूचित जातियों के कई उपवर्गों में कई बार
संघर्ष होते हैं,हालांकि इन संघर्षों के लिये अधिकांशतः ये सैक्युलर बिरादरी के
लोग ही जिम्मेदार होते हैं। इन सबका यह मानना है कि उनकी समस्याओं का समाधान
हिंदू समाज का अविभाज्य अंग बने रहने में ही हो सकता है। यह देश की अखण्डता और
हिन्दू समाज को भी विभक्त करने का षडयंत्र है। इन दंगों की रोकथाम क्या इस
अधिनियम से हो पायेगी? इन संघर्षों को रोकने के लिये जिस सदभाव की आवश्यक्ता
होती है, इस कानून के बाद तो उसकी धज्जियां ही उधडने वाली हैं।

४. इस विधेयक में बहुसंख्यक हिन्दू समाज को कट्घरे में खडा किया गया है। सोनिया
को ध्यान रखना चाहिये कि हिन्दू समाज की सहिष्णुता की इन्होनें कई बार तारीफ की
है। कांग्रेस के एक अधिवेशन में इन्होनें कहा था कि भारत में हिन्दू समाज के
कारण ही सैक्युलरिज्म जिंदा है और जब तक हिन्दू रहेगा भारत सैक्युलर रहेगा।
विश्व में जिसको भी प्रताडित किया गया, उसको हिंदू नें शरण दी है। जब यहूदियों,
पारसियों और सीरियन ईसाइयों को अपनी ही जन्मभूमि में प्रताडित किया गया था तब
हिन्दू ने ही इनको शरण दी थी। अब उसी हिन्दू को निशाना बनाने की जगह
साम्प्रदायिक तनावों के मूल को समझना चाहिये। सोनिया को वोट बैंक की चिंता
छोडकर देशहित का विचार करना चाहिये। यदि ये सहिष्णु हिन्दू समाज को एक नरभक्षी
दानव के रूप में दिखायेंगे तो साम्प्रदायिक वैमनस्य की खाई और चौडी हो जायेगी
जिसे कोई नहीं पाट सकेगा। सलाहकार परिषद के ही एक सदस्य, एन.सी. सक्सेना ने कहा
था ,” यदि अल्पसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति द्वारा बहुसंख्यक समाज के किसी
व्यक्ति पर अत्याचार होता है तो यह विषय भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत आयेगा,
प्रस्तावित अधिनियम में नहीं।” (दी पायनीयर,२३ जून,२०११) इस कानून का संरक्षण
केवल बहुसंख्यक समाज के लिये नहीं , अल्पसंख्यक समाज के लिये भी है। फिर इस
अधिनियम की आवश्यक्ता ही क्या है? क्या इससे उनके इरादों का पर्दाफाश नहीं हो
जाता?

५.इस विधेयक में साम्प्रदायिक हिंसा की परिभाषा दी है,” वह कृत्य जो भारत के
सैक्युलर ताने बाने को तोडेगा।” भारत में सैक्युलरिज्म की परिभाषा अलग-अलग है।
भारतीय संविधान में या इस विधेयक में कहीं भी इसे परिभाषित नहीं किया गया। क्या
अफजल गुरू को फांसी की सजा से बचाना,आजमगढ जाकर आतंकियों के हौंसले बढाना, बटला
हाउस में पुलिस वालों के बलिदान को अपमानित कर आतंकियों की हिम्मत बढाना,मुम्बई
हमले में बलिदान हुए लोगों के बलिदान पर प्रश्नचिंह लगाना, मदरसों में आतंकवाद
के प्रशिक्षण को बढावा देना, बंग्लादेशी घुसपैठियों को बढावा देना सोनिया की
निगाहों में सैक्युलरिज्म है और इनके विरुद्ध आवाज उठाना सैक्युलर ताने-बाने को
तोडना? ये लोग सैक्युलरिज्म की मनमानी परिभाषा देकर क्या देशभक्तों को प्रताडित
करना चाहते हैं?

६.विधेयक के उपबंध ७४ के अनुसार यदि किसी व्यक्ति के ऊपर घृणा सम्बन्धी प्रचार
या साम्प्रदायिक हिंसा का आरोप है तो उसे तब तक दोषी माना जायेगा जब तक कि वह
निर्दोष सिद्ध न हो जाये। यह उपबंध संविधान की मूल भावना के विपरीत है। भारत का
संविधान कहता है कि जब तक अपराध सिद्ध न हो जाये तब तक आरोपी निर्दोष माना
जाये। यदि यह विधेयक पास हो जाता है तो किसी को भी जेल में भेजने के लिये उस पर
केवल आरोप लगाना पर्याप्त रहेगा। उसके लिये अपने आप को निर्दोष सिद्ध करना कठिन
ही नहीं असम्भव हो जायेगा। इस विधेयक में यह भी प्रावधान है कि अगर किसी हिन्दू
के किसी व्यवहार से उसे मानसिक कष्ट हुआ है तो वह भी प्रताडना की श्रेणी में
आयेगा। इसका अर्थ है कि अब किसी अल्पसंख्यक नेता के कुकृत्य या देश विरोधी काम
के बारे में नहीं कहा जा सकता।

७.यदि किसी राज्य के कर्मचारी के विरुद्ध इस प्रकार का आरोप है तो उसके लिये उस
राज्य का मुख्यमंत्री भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है क्योंकि वह उसे नहीं रोक
सका है। इसका अर्थ है कि अब झूठी गवाही के आधार पर किसी भी विरोधी पक्ष के
मुख्यमंत्री को फंसाना अब ज्यादा आसान हो जायेगा। जो मुख्यमंत्री अब तक इनके
जाल में नहीं फंस पा रहे थे, अब उनके लिये जाल बिछाना ज्यादा आसान हो जायेगा।

८. यदि किसी संगठन का कोई कार्यकर्ता आरोपित है तो उस संगठन का मुखिया भी
जिम्मेदार होगा क्योंकि वह भी इस अपराध में शामिल माना जायेगा। अब ये लोग किसी
भी हिंदू संगठन व उनके नेताओं को आसानी से जकड सकेंगे। कसर अब भी नहीं छोड रहे
परन्तु अब वे अधिक मजबूती से इन पर रोक लगा कर मनमानी कर सकेंगे।

९. यदि दुर्भाग्य से यह विधेयक पास हो जाता है तो राज्य सरकार के अधिकारों को
केन्द्र सरकार आसानी के साथ हडप सकती है। कानून व्यवस्था राज्य सरकार का विषय
होती है। केन्द्र सरकार ऐसे विषयों पर सलाह दे सकती है या “एड्वाइजरी” जारी कर
सकती है। इससे भारत का संघीय ढांचा सुरक्षित रहता है। परन्तु अब संगठित
साम्प्रदायिक और किसी सम्प्रदाय को लक्ष्य बनाकर की जाने वाली हिंसा राज्य के
भीतर आंतरिक उपद्रव के रूप में देखी जायेगी। पहले केन्द्र सरकार की मंशा
अनुच्छेद ३५५ का उपयोग कर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की थी। परन्तु अब इस
कदम को वापस लेकर वे राजनीतिक दलों के विरोध की धार को कुंद करना चाहते हैं।
परन्तु इनके राज्य सरकारों को कुचलने के इरादों में कोई कमी नहीं आयी है।

१०. प्रस्तावित अधिनियम में निगरानी व निर्णय लेने के लिये जिस प्राधिकरण का
प्रावधान है उसमें ७ सदस्य होंगे। अध्यक्ष, उपाध्यक्ष समेत इन ७ में से ४ सदस्य
अल्पसंख्यक वर्ग के होंगे। क्या इससे परस्पर अविश्वास नहीं बढेगा? इसका मतलब यह
स्पष्ट है कि हर व्यक्ति ,चाहे किसी भी पद पर हो, केवल अपने समुदाय की चिंता
करता है। इस चिंतन का परिणाम क्या होगा इस पर देश को अवश्य विचार करना होगा।
किसी न्यायिक प्राधिकरण का साम्प्तदायिक आधार पर विभाजन देश को किस ओर ले
जायेगा?

११. इस प्राधिकरण को असीमित अधिकार दिये गये हैं। ये न केवल पुलिस व सशस्त्र
बलों को सीधे निर्देश दे सकते हैं अपितु इनके सामने दी गई गवाही न्यायालय के
सामने दी गई गवाही मानी जायेगी। इसका अर्थ है कि तीस्ता जैसी झूठे गवाह तैय्यार
करने वाली अब अधिक खुल कर अपने षडयंत्रों को अन्जाम दे सकेंगी।

१२. अनुच्छेद १३ सरकारी कर्मचारियों पर इस प्रकार शिकन्जा कसता है कि वे मजबूरन
अल्पसंख्यकों का साथ देने के लिये मजबूर होंगे चाहे वे ही अपराधी क्यों न हों।

१३.यदि यह विधेयक लागू हो जाता है तो किसी भी अल्पसंख्यक व्यक्ति के लिये किसी
भी बहुसंख्यक को फंसाना बहुत आसान हो जायेगा। वह केवल पुलिस में शिकायत दर्ज
करायेगा और पुलिस अधिकारी को उस हिन्दु को बिना किसी आधार के भी गिरफ्तार करना
पडेगा। वह हिन्दू किसी सबूत की मांग नहीं कर सकता क्योंकि अब उसे ही अपने को
निरपराध सिद्ध करना है। वह शिकायतकर्ता का नाम भी नहीं पूछ सकता। अब पुलिस
अधिकारी को ही इस मामले की प्रगति की जानकारी शिकायतकर्ता को देनी है जैसे कि
वह उसका अधिकारी हो। शिकायतकर्ता अगर यह कहता है कि आरोपी के किसी व्यवहार,
कार्य या इशारे से वह मानसिक रूप से पीडित हुआ है तो भी आरोपी दोषी माना
जायेगा। इसका अर्थ है कि अब कोई भी किसी मौलवी या किसी पादरी के द्वारा किये
गये किसी दुष्प्रचार की शिकायत भी नहिं कर सकेगा न ही वह उनके किसी घृणास्पद
साहित्य का विरोध कर सकेगा।

१४. इस विधेयक के अनुसार अब पुलिस अधिकारी के पास असीमित अधिकार होंगे। वह जब
चाहे आरोपी हिन्दू के घर की तलाशी ले सकता है। यह अन्ग्रेजों के द्वारा लाये
गये कुख्यात रोलेट एक्ट से भी खतरनाक सिद्ध हो सकता है।

१५.इस विधेयक की धारा ८१ में कहा गया है कि ऐसे मामलों नियुक्त विशेष न्यायाधीश
किसी अभियुक्त के ट्रायल के लिये उसके समक्ष प्रस्तुत किये बिना भी उसका
संज्ञान ले सकेगा और उसकी संपत्ति को भी जब्त कर सकेगा।

१६.किसी अल्पसंख्यक के व्यापार में बाधा डालना भी इसमें अपराध है। यदि कोई
मुसलमान किसी हिंदू की सम्पत्ति को खरीदना चाहता है और वह हिंदू मना करता है तो
इसमें वह अपराध बन जायेगा।

१७.अब हिन्दू को इस अधिनियम में इस कदर कस दिया जायेगा कि उसको अपने बचाव का एक
ही रास्ता दिखाई देगा कि वह धर्मांतरण को मजबूर हो जायेगा। इसके कारण धर्मांतरण
की गतिविधियों में जबर्दस्त तेजी आयेगी।

इस विधेयक के कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का ही विश्लेषण किया जा सका है। जैसा चित्र
अभी तक सामने आया है यदि यह पास हो जाता है तो परिस्थिती और भी भयावह होगी।
आपात काल में किये गये मनमानीपूर्ण निर्णय भी फीके पड जायेंगे। हिन्दू का
हिन्दू के रूप में रहना और भी मुश्किल हो जायेगा। मनमोहन सिंह ने पहले ही कहा
था कि देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला अधिकार है। यह विधेयक इस कथन का
नया संस्करण है। इस विधेयक के विरोध में एक सशक्त आंदोलन खडा करना पडेगा तभी इस
तानाशाहीपूर्ण कदम पर रोक लगाई जा सकती है।

(प्रिय अग्रज श्री विजय कुमार शर्मा की प्रेरणा व सहयोग से)
मनोज अग्रवाल २१/०७/२०११

Seva Bharati dedicates 92 houses to flood victims


Seva Bharati dedicates 92 houses to flood victims at Inamboodihal village of North Karnataka



July 14th, 2011, 11:33 pm
Newly constructed houses by Seva Bharati
Hunagunda Taluk: Seva Bharati, a premier social service organisation and a RSS wing of seva projects, has dedicated more houses to flood victims. In a meaningful ceremony on July 12, 2011 at Inamboodihal village of Hunagunda Taluk at North Karnataka, Seva Bharati dedicated 92 newly constructed houses to the families of flood victims. Dr Kalladka Prabhakar Bhat, South-Central Zonal (Kshethreeya) Sampark Pramukh of Rashtriya Swayamsevak Sangh handed over these houses to the villlagers.
“Without expecting any fame for service activities, Seva Bharati is serving the needful population of the state. We should think that ‘Seva’ is an opportunity to serve mankind and the eternal God. To build a nation of hormony and integrity, Seva activities are much needed, essential.” Said Dr Prabhakar Bhat.
Dr Bhat also requested the beneficiaries-villagers to live with social hormnony and there by make the dream in to reality of strong stable society and nation. Each house should have patirotic thoughts. The houses need think and act socially, said Prabhakat Bhat.
Minister for Irrigation and Kannada Culture Govinda Karajola, MLA Veeranna Charanti Mutt, several local leaders of various socio-religious organisations were present during the occassion.
 
Srinivas Thatipelli
121, East Claremont Street, Edinburgh, EH7 4JA
Scotland, UK, (M)+44(0)7424 675 444
__._,_.___

आतंकवाद पर क्षुद्र राजनीति



क्या भारत अमेरिका की तर्ज पर आतंकवाद के खिलाफ युद्ध जीत सकता है? यदि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के बयानों को देखें तो निराशा हाथ लगती है। प्रधानमंत्री ने कहा कि आतंकी हमलों की भनक खुफिया विभाग को नहीं लगने के कारण आतंकवादी हमले को अंजाम देने में कामयाब रहे। दूसरी ओर, राहुल गांधी आतंकवादी हमलों को रोक पाना बेहद मुश्किल बता रहे हैं। उनके अविवेकी बयान के बचाव में उतरे दिग्विजय सिंह का मानना है कि भारत कम से कम पाकिस्तान से तो बेहतर है, जहां रोज बम विस्फोट हो रहे हैं। यह कैसी मानसिकता है? अमेरिका में 9/11 को हुए आतंकी हमले के बाद सुरक्षा के जो कड़े इंतजाम किए गए उसके कारण दोबारा एक भी आतंकी घटना वहां नहीं हुई। इसके विपरीत भारत में आतंकवादी कहीं भी हमला करने में सक्षम हो रहे हैं। क्यों? इससे पूर्व 26/11 को मुंबई पर बड़ा हमला हुआ था। प्रधानमंत्री-गृहमंत्री ने तब त्यौरियां चढ़ाते हुए अगला हमला होने की सूरत में भारत द्वारा जवाबी कार्रवाई करने की धमकी दी थी। आतंकवाद से निपटने के लिए चाक-चौबंद व्यवस्था करने का दावा किया गया था, किंतु 13/7 के हमले ने साबित कर दिया कि इस सरकार में आतंकवाद पर अंकुश लगाने की इच्छाशक्ति ही नहीं है। वास्तव में भारत में आतंकवाद को उपजाऊ जमीन कांग्रेस की मुस्लिम वोट बैंक की नीति और वामपंथियों के विकृत सेक्युलरवाद के कारण ही मिल रही है। राजग सरकार के कार्यकाल में आतंकवाद के खिलाफ सख्त कानून (पोटा) बनाया गया था। कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने सत्ता में आते ही पोटा को निरस्त कर आतंकियों का मानव‌र्द्धन किया। 26/11 के हमले के बाद राष्ट्रीय जांच एजेंसी का गठन कर सरकार ने आतंकवाद के खिलाफ शून्य सहनशीलता बरतने का दावा किया, किंतु राष्ट्रीय जांच एजेंसी की पिछले तीन साल की उपलब्धियां क्या हैं? एजेंसी ने अपनी सारी ऊर्जा कथित भगवा आतंकवाद का हौवा खड़ा करने में जाया कर दी। भगवा आतंकवाद कांग्रेस का राजनीतिक एजेंडा हो सकता है, किंतु क्या इस कुनीति से जिहाद का जहर कम हो जाएगा? प्रतिबंधित मुस्लिम छात्र संगठन-सिमी अपने नए अवतार इंडियन मुजाहिदीन के रूप में भारत की सनातन संस्कृति को निरंतर लहूलुहान करने में लगा है, वहीं भारत का सत्ता अधिष्ठान इस्लामी आतंकवाद के सामने हिंदू आतंकवाद का हौवा खड़ा करने में व्यस्त है। आज चारों तरफ अराजकता का माहौल है। देश का चालीस प्रतिशत हिस्सा नक्सली हिंसा का शिकार है। जिहादी इस्लाम का जहर कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैल चुका है। बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण कुछ राज्यों के जनसंख्या स्वरूप में बदलाव के साथ आंतरिक सुरक्षा पर भी खतरा मंडरा रहा है, किंतु सेक्युलर सत्ता अधिष्ठान हिंदू आतंक का प्रलाप कर रहा है। पोटा जैसे आतंकवाद निरोधी कानून को सेक्युलरिस्ट मुस्लिम प्रताड़ना का यंत्र बताते हैं। कुछ गैर-कांग्रेसी राज्य सरकारें जब आतंकवाद के खिलाफ कड़े कानून लाना चाहती हैं तो केंद्र सरकार उनके मार्ग में अवरोध खड़े करती हैं। गुजरात, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के आतंकवाद निरोधी कानून केंद्र सरकार के पास पिछले चार वषरें से मंजूरी के लिए लंबित हैं। सन 2005 से अब तक कम से कम बीस बड़ी आतंकवादी घटनाएं देश के भिन्न-भिन्न भागों में हुई हैं, किंतु अब तक किसी भी दोषी को सजा नहीं हो सकी है। संसद पर हमला करने की साजिश रचने वाले अफजल गुरु की फांसी की सजा लंबित है। उधर मुंबई हमलों में एकमात्र जिंदा पकड़े गए आतंकी अजमल कसाब को सुरक्षित रखने पर करोड़ों रुपये खर्च किए जा रहे हैं। क्या उसका भी हश्र अफजल गुरु जैसा ही होना है? कोयंबटूर बम धमाकों के आरोपी अब्दुल नासेर मदनी को पैरोल पर रिहा कराने के लिए तो केरल विधानसभा का विशेष सत्र होली की छुट्टी वाले दिन आयोजित किया गया था और कांग्रेस और मा‌र्क्सवादियों ने सर्वसम्मति से उसकी रिहाई का प्रस्ताव पारित किया था। ऐसी मानसिकता के रहते क्या आतंकवाद का खात्मा संभव है? आतंकवाद को लेकर कांग्रेस का दोहरापन छिपा नहीं है। बाटला हाउस मुठभेड़ में दो पुलिसकर्मियों की भी मौत हुई थी, किंतु अपने जवानों की शहादत को अपमानित करते हुए कांग्रेस के कुछ नेता मुठभेड़ के फौरन बाद बाटला हाउस पहुंचे थे, जहां मुस्लिम वोट बैंक की खातिरदारी में मुलायम सिंह यादव सरीखे नेता पहले से ही विराजमान थे। सत्तासीन कांग्रेस ने अपने नेताओं को आतंकवादियों का साथ देने वाले कट्टरपंथी तत्वों से दूरी बनाने का निर्देश देने के बजाए सुरक्षाकर्मियों की भूमिका पर सवाल खड़ा किया। बाटला हाउस मुठभेड़ और कई अन्य राज्यों की जांच में आतंकवाद और उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के बीच गहरा संबंध पाया गया, किंतु वोट बैंक की राजनीति के कारण आजमगढ़ सेक्युलरिस्टों का नया तीर्थ बन गया। बाटला हाउस मुठभेड़ में मारे गए आतंकी और अन्यत्र आतंकी गतिविधियों में लिप्त पाए जाने के कारण आजमगढ़ के जिन युवाओं को गिरफ्तार किया गया, उनके घरों पर मातमपुर्सी के लिए सेक्युलरिस्टों का तांता लग गया। सुरक्षा जवानों का मनोबल तोड़ने वाले सेक्युलरिस्ट क्या कभी आतंकवाद के खिलाफ लामबंद हो सकेंगे? कई वषरें से पूरे देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र है, किंतु संप्रग सरकार सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम (न्याय एवं क्षतिपूर्ति) विधेयक 2011 का मसौदा तैयार किए बैठी है। इस विधेयक को लाने का उद्देश्य भी मुस्लिम समाज के कट्टरपंथी वर्ग को खुश कर अपना वोटबैंक बढ़ाना ही है। इस मसौदे में पहले से ही यह मान लिया गया है कि सांप्रदायिक तनाव के लिए केवल बहुसंख्यक जिम्मेदार हैं और अल्पसंख्यकों का इसमें कोई दोष नहीं है। सांप्रदायिक तनाव या संघर्ष की स्थिति में केवल बहुसंख्यक समाज को ही दंडित करने का प्रावधान रखा गया है। वोटबैंक की राजनीति के कारण क्या यह सांप्रदायिक सौहार्द्र को बिगाड़ने का प्रयास नहीं है? वस्तुत: सामाजिक टकराव से ही कांग्रेस अपना राजनीतिक उल्लू साधती आई है। किसी भी तरह का आतंकवाद भारतीय संप्रभुता और अखंडता को प्रत्यक्ष चुनौती है। ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में घुसकर मार गिराना पाकिस्तान की संप्रभुता का उल्लंघन भले हो, किंतु इससे अमेरिका की दृढ़ इच्छाशक्ति भी रेखांकित हुई है। सारा अमेरिकी समाज इस मामले में बराक ओबामा के साथ खड़ा था। वोटबैंक की वैचारिक दासता में बंधे भारतीय सत्ता अधिष्ठान से ऐसी अपेक्षा व्यर्थ है। (लेखक भाजपा के राज्यसभा सदस्य हैं)
स्त्रोत : http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=2&edition=2011-07-19&pageno=8


खुशवंत सिंह के बाप ने दिलवाई थी भगत सिंह को फांसी:

खुशवंत सिंह के बाप ने दिलवाई थी भगत सिंह को फांसी:

दिल्ली सरकार देगी ‘सम्मान’==============
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शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के बलिदान को शायद ही कोई भुला सकता है। आज भी देश का बच्चा-बच्चा उनका नाम इज्जत और फख्र के साथ लेता है, लेकिन दिल्ली सरकार उन के खिलाफ गवाही देने वाले एक भारतीय को मरणोपरांत ऐसा सम्मान देने की तैयारी में हैजिससे उसे सदियों नहीं भुलाया जा सकेगा। यह शख्स कोई और नहीं, बल्कि औरतों के विषय में भौंडा लेखन कर शोहरत हासिल करने वाले लेखक खुशवंत सिंह का पिता ‘सर’ शोभा सिंह है और दिल्ली सरकार विंडसर प्लेस का नाम उसके नाम पर करने का प्रस्ताव ला रही है।
यहां तक कि जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी आत्मकथा में यह वर्णन किया है– भगत सिंह एक प्रतीक बन गया। सैण्डर्स के कत्ल का कार्य तो भुला दिया गया लेकिन चिह्न शेष बना रहा और कुछ ही माह में पंजाब का प्रत्येक गांव और नगर तथा बहुत कुछ उत्तरी भारत उसके नाम से गूंज उठा। उसके बारे में बहुत से गीतों की रचना हुई और इस प्रकार उसे जो लोकप्रियता प्राप्त हुई वह आश्चर्यचकित कर देने वाली थी।

जब दिल्ली में भगत सिंह पर अंग्रेजों की अदालत में मुकद्दमा चला तो भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने को कोई तैयार नहीं हो रहा था। बड़ी मुश्किल से अंग्रेजों ने दो लोगों को गवाह बनने पर राजी कर लिया। इनमें से एक था शादी लाल और दूसरा था शोभा सिंह। मुकद्दमे में भगत सिंह को उनके दो साथियों समेत फांसी की सजा मिली.
इधर दोनों को वतन से की गई इस गद्दारी का इनाम भी मिला। दोनों को न सिर्फ सर की उपाधि दी गई बल्कि और भी कई दूसरे फायदे मिले। शोभा सिंह को दिल्ली में बेशुमार दौलत और करोड़ों के सरकारी निर्माण कार्यों के ठेके मिले जबकि शादी लाल को बागपत के नजदीक अपार संपत्ति मिली। आज भी श्यामली में शादी लाल के वंशजों के पास चीनी मिल और शराब कारखाना है। यह अलग बात है कि शादी लाल को गांव वालों का ऐसा तिरस्कार झेलना पड़ा कि उसके मरने पर किसी भी दुकानदार ने अपनी दुकान से कफन का कपड़ा भी नहीं दिया। शादी लाल के लड़के उसका कफ़न दिल्ली से खरीद कर लाए तब जाकर उसका अंतिम संस्कार हो पाया था।

शोभा सिंह अपने साथी के मुकाबले खुशनसीब रहा। उसे और उसके पिता सुजान सिंह (जिसके नाम पर सुजान सिंह पार्क है) को राजधानी दिल्ली में हजारों एकड़ जमीन मिली और खूब पैसा भी। उसके बेटे खुशवंत सिंह ने शौकिया तौर पर पत्रकारिता शुरु कर दी और बड़ी-बड़ी हस्तियों से संबंध बनाना शुरु कर दिया। सर सोभा सिंह के नाम से एक चैरिटबल ट्रस्ट भी बन गया जो अस्पतालों और दूसरी जगहों पर धर्मशालाएं आदि बनवाता तथा मैनेज करता है। आज दिल्ली के कनॉट प्लेस के पास बाराखंबा रोड पर जिस स्कूल को मॉडर्न स्कूल कहते हैं वह शोभा सिंह की जमीन पर ही है और उसे सर शोभा सिंह स्कूल के नाम से जाना जाता था। खुशवंत सिंह ने अपने संपर्कों का इस्तेमाल कर अपने पिता को एक देश भक्त और दूरद्रष्टा निर्माता साबित करने का भरसक कोशिश की।
खुशवंत सिंह ने खुद को इतिहासकार भी साबित करने की कोशिश की और कई घटनाओं की अपने ढंग से व्याख्या भी की। खुशवंत सिंह ने भी माना है कि उसका पिता शोभा सिंह 8 अप्रैल 1929 को उस वक्त सेंट्रल असेंबली मे मौजूद था जहां भगत सिंह और उनके साथियों ने धुएं वाला बम फेका था। बकौल खुशवंत सिह, बाद में शोभा सिंह ने यह गवाही तो दी, लेकिन इसके कारण भगत सिंह को फांसी नहीं हुई। शोभा सिंह 1978 तक जिंदा रहा और दिल्ली की हर छोटे बड़े आयोजन में बाकायदा आमंत्रित अतिथि की हैसियत से जाता था। हालांकि उसे कई जगह अपमानित भी होना पड़ा लेकिन उसने या उसके परिवार ने कभी इसकी फिक्र नहीं की। खुशवंत सिंह का ट्रस्ट हर साल सर शोभा सिंह मेमोरियल लेक्चर भी आयोजित करवाता है जिसमे बड़े-बड़े नेता और लेखक अपने विचार रखने आते हैं, बिना शोभा सिंह की असलियत जाने (य़ा फिर जानबूझ कर अनजान बने) उसकी तस्वीर पर फूल माला चढ़ा आते हैं।
अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और खुशवंत सिंह की नज़दीकियों का ही असर कहा जाए कि दोनों एक दूसरे की तारीफ में जुटे हैं। प्रधानमंत्री ने बाकायदा पत्र लिख कर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से अनुरोध किया है कि कनॉट प्लेस के पास जनपथ पर बने विंडसर प्लेस नाम के चौराहे (जहां ली मेरीडियन, जनपथ और कनिष्क से शांग्रीला बने तीन पांच सितारा होटल हैं) का नाम सर शोभा सिंह के नाम पर कर दिया जाए। अब देखना है कि एक गद्दार का यह महिमामंडन कब और कैसे होता है।

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India against Corruption



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Dangerous Saudi affair

 AHMAD ALI KHALID 

 JULY 19TH, 2011
Life in Saudi Arabia is good – oil rich, tax free incomes, multiple servants, big villas and security.  Even labourers, remark on the improved quality of life in Saudi as compared to Pakistan. For them this is an opportunity to support their families in the relative security of the Kingdom. 

It seems Pakistani expat workers are satisfied with life. Even migrant labourers who I have conversed with personally say life is better in Saudi than in Pakistan, and the incomes they receive give their families back home a fighting chance. Personally, I’ve had good experiences and memories of living in the Kingdom for many years. But let’s face it – there is a conflict between personal gain and ethical integrity when it comes to Saudi Arabia. 

One can witness a pervasive sort of racism,  a form of Saudi supremacy that views other types of Arabs and particularly the South Asian expats (who are mostly labourers) as inferior and mere ‘commodities’ who can be bought and sold ruthlessly. Expats are not human beings but a commodity to be bartered and acquired. 

Connected to racial supremacy is an attempt to insulate the regime from criticism by using the cloak of religion. Saudi textbooks are filled with references to hate; the Islamic Studies curriculum in the country is simply barbaric. I’ve experienced first-hand being taught by an Islamic Studies teacher in one of the most prominent private schools in Riyadh, about the dangers of having non-Muslims as friends and about the evil conspiracies hatched by Christians, Jews and Shias. 

In Pakistan, Saudi petro-dollars have funded factories of hate in the form of the madrassa system. ‘Petro-Islam’ is a nightmare scenario – capitalism and a dangerous ideology locked in a tight embrace. It is because of the sheer amount of money behind this austere and dangerous theology that it can easily overwhelm the moderate elements in any given society. 

Little attention is given in Pakistan about the treatment of Pakistani labourers. If the Saudis will not speak about the suffering of these people then why should we remain silent? It is understandable that Pakistanis within Saudi cannot protest, but why do Pakistanis living outside who have witnessed first-hand the harsh treatment of their fellow citizens choose to remain silent? The Gulf countries practice a modern day equivalent of slavery, and our media should be more vocal about it, instead of weaving tales about Mossad and RAW. 

The treatment of Pakistani labourers as sub-humans is deeply pervasive. The underlying logic of this treatment is that a non-Saudi can never be an equal; they are always meant to serve. Pakistanis like to criticise Europe’s hostility to immigrants but the anti-immigration feeling in Saudi Arabia is deeply toxic and yet it is never scrutinised.
A famous Pakistani defence of Saudi Arabia is that it is an ‘Islamic country’ and ergo a good place to raise the kids. But there is very little ‘Islamic’ about the country – in my time in Saudi, I talked to converts to Islam who travelled from as far as America and the UK to see for themselves the ‘Islamic’ Kingdom of Saudi Arabia. Privately, they reveal a story of disillusionment and profuse disappointment.
Many were shocked by what they see in Saudi. They talk about a hypocrisy running deep within the society. Whilst the elite enjoy a hedonistic lifestyle of drinking and private nightclub-style parties, the religious police make life hell. I once saw a mullah in a GMC reverse on one of the main roads in Riyadh just to tell a woman to put her burqa on properly. 

I find we are confused about our reaction to the prospect of a ‘Saudi Revolution’. When Mubarak was toppled and Ben Ali fled, the reaction amongst Pakistanis was positive, after all these dictators were merely pawns of the West. But talk about Saudi, and again there is that sense of unease and discomfort. After all, for all their faults the Saudis still do some great work. Many Pakistanis and indeed Muslims around the world have a sense of deep respect in regards to the provision of the Hajj. Indeed, the Saudis have continually done a fantastic job in improving facilities, crowd control and should be given credit for handling such a difficult event with efficiency.
But on the issue of faith, some Pakistanis are naive in thinking that a Muslim country can never be unjust with another Muslim country; they refuse to accept that in the reality of real politick there is no ‘Islamic Ummah’. 

It is this sense of moral unease we have when we talk about Saudi Arabia that has haunted Pakistani hearts and minds. On the one hand, we receive great remittances from Pakistani workers who are employed in the Kingdom, but on the other hand everyone knows that they are discriminated against and have little or no rights. But yet again the response is that those Pakistanis living and working in Saudi Arabia should be grateful that they even have a job because of the deteriorating economic conditions back home. In this cold, utilitarian world where money talks, it is impossible that the Pakistani government will fight for its citizens rights in front of the Saudi Royal family. 

The old adage, ‘Don’t bite the hand that feeds you’, comes to mind. Pakistan is trapped in an abusive marriage (or maybe a delusional affair?) when it comes to Saudi. 

Today the Kingdom is launching a great counter-revolution trying to contain the ‘Arab Spring’ by buying off Arab militaries, supporting dictators, issuing fatwas against the protestors and involving the Pakistani security forces in controlling protests in Bahrain which has become a stage for its great feud with Iran. Pakistan is very much a supporter of tyranny in the greatest political awakening of the 21st century, and this will hurt only Pakistanis in the end.

Ahmad Ali Khalid is a freelance writer and blogger based in the UK. He can be reached at ahmadalikhalid@ymail.com