Friday, September 6, 2013

constiutional provision for minority

संविधान का अल्पसंख्यक प्रावधान

न्यायाधीशों ने चेतावनी भी दी, ‘अगर मात्र भिन्न धार्मिक विश्वास या कम संख्या या कम मजबूती, धन-शिक्षा-शक्ति या सामाजिक अधिकारों के आधार पर भारतीय समाज के किसी समूह के अल्पसंख्यकहोने का दावा स्वीकार किया जाता है, तो भारत जैसे बहु-धार्मिक, बहु-भाषाई समाज में इसका कोई अंत नहीं रहेगा।
शंकर शरण

जनसत्ता 27 जून, 2013: महत्त्वपूर्ण शासकीय जिम्मेदारी उठाए हुए एक वरिष्ठ केंद्रीय नेता का ताजातरीन बयान गंभीरता से विचार करने योग्य है। उसमें तीन बातें ध्यान आकर्षित करती हैं। पहली, ‘अल्पसंख्यकों के लिए साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण का उप-कोटा बनाया गया, लेकिन उसे सुप्रीम कोर्ट ने स्थगित कर दिया। इसलिए अकादमिक संस्थानों में अल्पसंख्यकों के लिए नौकरी और पद सुरक्षित करने की कोई नीति नहीं है।दूसरी, ‘हम आशान्वित हैं कि उप-कोटा लागू हो जाएगा। हम अटॉर्नी जनरल से बात कर रहे हैं ताकि सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई और पहले करा ली जाए और मामला सुलझा लिया जाए। लेकिन इस बीच हमें अल्पसंख्यकों की मदद करनी होगी।उस मदद का विवरण देते हुए उन्होंने कहा, ‘चौवालीस पॉलिटेक्निक और एक सौ तेरह आइटीआइ अल्पसंख्यक केंद्रित इलाकों में खोले जा रहे हैं।इतना ही नहीं, उन वरिष्ठ केंद्रीय नेता के अनुसार कार्मिक विभाग को निर्देश दिया गया है कि वह सरकारी क्षेत्र के सभी सेलेक्शन बोर्डों और चयन समितियों में अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व दे। 
उनके आत्मविश्वास और कामकाजी अंदाज से स्पष्ट है कि अल्पसंख्यक आरक्षण लागू होना तय है। केवल समय की बात है। वह भी जल्दी करने का इंतजाम हो रहा है। फिर भी जितनी देर हो, उस बीच अंतरिम लाभ के तौर पर एक सौ सत्तावन तकनीकी संस्थान अल्पसंख्यकोंके हित में खोले जा रहे हैं।

इतना ही नहीं, आमतौर पर सभी अकादमिक चयन समितियों में अल्पसंख्यक प्रतिनिधियों को स्थान देने का सीधा अर्थ है कि अब सरकारी अकादमिक आदि पदों पर चयन का आधार यह भी होगा कि उम्मीदवार अल्पसंख्यक हो! नहीं तो, चयन समिति में ही अल्पसंख्यकको लाने की चिंता का कोई अर्थ नहीं।  
ये सब दूरगामी निर्णय किस सिद्धांत के आधार पर हो रहे हैं? क्या यह सब उचित है, न्यायपूर्ण है, देश-समाज के हित में है? इतना ही नहीं, क्या यह संविधान के भी अनुरूप है? ये प्रश्न बहुतों को अटपटे भी लग सकते हैं। क्योंकि अल्पसंख्यकोंके लिए यह और वह करने के अभियान इतने नियमित हो गए हैं कि उसे सहज और सामान्य तक समझा जाने लगा है।
पर सचाई यह है कि न केवल यह अभियान देश के लिए अत्यंत खतरनाक और विघटनकारी है, बल्कि संविधान के भी अनुरूप नहीं है। चूंकि राजनीतिक दलों और प्रभावी बुद्धिजीवी वर्ग ने संकीर्ण लोभ और वैचारिक झक में इसे सही मान लिया है, इससे इसका अन्याय, असंवैधानिकता और संभावित भयावह दुष्परिणाम छिपाया नहीं जा सकता।
अन्याय और असंवैधानिकता की पहचान इसी से आरंभ हो सकती है कि अल्पसंख्यकका अर्थ बदल कर एक विशेष समुदाय मात्र कर लिया गया है। यह विचित्र सचाई सभी जानते हैं। लेकिन क्या भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक का यही अर्थ है?
दूसरी बात, जो उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है कि हर कहीं अल्पसंख्यक को लाने और भरने के निर्णयों में समानता के उस संवैधानिक प्रावधान को घूरे में फेंक दिया गया है कि राज्य किसी आधार पर नागरिकों में भेदभाव नहीं करेगा। अल्पसंख्यक संबंधी सभी घोषणाएं और निर्णय खुले भेदभाव के आधार पर हो रहे हैं।
फलां व्यक्ति अल्पसंख्यक समुदाय का है, इसलिए किसी महत्त्वपूर्ण चयन समिति में लिया जाएगा- यह संविधान की किस धारा के अनुरूप है?
अल्पसंख्यक संबंधी संविधान की धाराओं में दूर-दूर तक इस तरह का कोई अर्थ नहीं निकलता। कृपया संविधान की वे धाराएं, 29 और 30, स्वयं पढ़ कर देखें। इसलिए अल्पसंख्यकों के लिए निरंतर बढ़ते, उग्रतर होते कार्यक्रम में जो कुछ किया जा रहा है उनमें अधिकतर पूरी तरह अवैधानिक हैं।
 
यह ऐसी डाकेजनी है, जो इतने खुले रूप में हो रही है कि डाकेजनी नहीं लगती! शरलक होम्स के मुहावरे में कहें तो इट इज सो ओवर्ट, इट इज कोवर्ट
हां, यह भी सच है कि अल्पसंख्यक के नाम पर इतनी मनमानियां इसलिए भी चल रही हैं क्योंकि संविधान ने इनकी पहचान करने में गड़बड़झाला कर दिया है। मूल गड़बड़ी उसी से शुरू हुई, मगर उसने अब जो रूप ले लिया है वह संविधान से भी अनुमोदित नहीं है।
बहरहाल, उन संवैधानिक धाराओं में गड़बड़ी यह है कि धारा 29 अल्पसंख्यक के संदर्भ में मजहब, नस्ल, जाति और भाषा, ये चार आधार देती है। जबकि धारा 30 में केवल मजहब और भाषा का उल्लेख है। तब अल्पसंख्यक की पहचान किन आधारों पर गिनी या छोड़ी जाएगी? यह अनुत्तरित है।
संविधान में दूसरी बड़ी गड़बड़ी यह है कि अल्पसंख्यक की पूरी चर्चा में कहीं बहुसंख्यकका उल्लेख नहीं है। कानूनी दृष्टि से यह निपट अंधकार भरी जगह है, जहां सारी लूटपाट हो रही है। क्योंकि कानून में कोई चीज स्वत: स्पष्ट नहीं होती।
जब लिखित कानूनी धाराओं पर अर्थ के भारी मतभेद होते हैं, जो न्यायिक बहसों, निर्णयों में दिखते हैं; तब किसी लुप्त, अलिखित धारणा पर अनुमान किया जा सकता है। इसीलिए बहुसंख्यकके रूप में हमारे बुद्धिजीवी जो भी मानते हैं, वह संविधान में कहीं नहीं। इसी से भयंकर गड़बड़ियां चल रही हैं। संविधान में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों अपरिभाषित हैं, लेकिन व्यवहार में स्वार्थी नेतागण दोनों को जब जैसे
मनमाना नाम और अर्थ देकर किसी को कुछ विशेष दे और किसी से कुछ छीने ले रहे हैं।
यह सब इसलिए भी हो रहा है, क्योंकि अल्पसंख्यक संदर्भ में बुनियादी प्रश्न पूरी तरह, और आरंभ से ही अनुत्तरित हैं। जैसे, बहुसंख्यक कौन है? अगर मजहब, नस्ल, जाति और भाषा (धारा 29); या केवल मजहब और भाषा (धारा 30) के आधार पर भी अल्पसंख्यक की अवधारणा की जाए, तो इसकी तुलना में बहुसंख्यक किसे कहा जाएगा? फिर, यह बहुसंख्यक और तदनुरूप अल्पसंख्यक भी जिला, प्रांत या देश, किस क्षेत्राधार पर चिह्नित होगा?

इन बिंदुओं को प्राय: छुआ भी नहीं जाता। ऐसी भंगिमा बनाई जाती है मानो यह सब सबको स्पष्ट हो। जबकि ऐसा कुछ नहीं है।

न संविधान, न किसी सरकारी दस्तावेज, न सुप्रीम कोर्ट के किसी निर्णय- कोई बहुसंख्यकनामक चिड़िया कहीं दिखाई नहीं देती। न इसका कोई नाम है, पहचान। दूसरे शब्दों में, बिना किसी बहुसंख्यक के ही अल्पसंख्यक का सारा खेल चल रहा है!

 
कुछ ऐसा ही जैसे ताश के खेल में एक ही खिलाड़ी दोनों ओर से खेल रहा हो। या किसी सिक्के में एक ही पहलू हो। दूसरा पहलू सपाट, खाली हो। उसी तरह भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक तो है, बहुसंख्यक है ही नहीं!

लेकिन जब बहुसंख्यक कहीं परिभाषित नहीं, तो अल्पसंख्यक की धारणा ही असंभव है! क्योंकि अल्पऔर बहुतुलनात्मक अवधारणाएं हैं। एक के बिना दूसरा नहीं हो सकता। मगर भारतीय संविधान में यही हो गया है।

तब वही परिणाम होगा, जो हो रहा है- यानी निपट मनमानी और अन्याय। उदाहरण के लिए, संविधान की धारा 29 में जातिवाले आधार पर ब्राह्मण भी अल्पसंख्यक हैं। बल्कि हरेक जाति, पूरे देश, हरेक राज्य और अधिकतर जिलों में अल्पसंख्यक हैं। धारा 30 मेंभाषावाले आधार पर हर भाषा-भाषी एकाध राज्य छोड़ कर पूरे देश में अल्पसंख्यक हैं। तीन चौथाई राज्यों में हिंदी-भाषी भी अल्पसंख्यक हैं। इन अल्पसंख्यकों के लिए कब, क्या किया गया? अगर नहीं किया गया, तो क्यों?
इसका उत्तर है कि जान-बूझ कर अल्पसंख्यक को अस्पष्ट, अपरिभाषित रखा जा रहा है, ताकि मनचाहे निर्णय लिए जा सकें। जबकि बहुसंख्यक का तो कहीं उल्लेख ही नहीं! इसलिए न उसके कोई अधिकार हैं, न उसके साथ कोई अन्याय। क्योंकि संविधान या कानून में उसका अस्तित्व ही नहीं!
इस प्रकार, देश की राजनीति और विधान में बहुसंख्यक के बिना ही अल्पसंख्यक अधिकार चल रहा है।
 
अल्पसंख्यकों में भी केवल मजहबी अल्पसंख्यक, उनमें भी केवल एक चुने हुए अल्पसंख्यक को नित नई सुविधाएं और विशेषाधिकर दिए जा रहे हैं। वह अल्पसंख्यक, जो वास्तव में सबसे ताकतवर है!

जिससे देश के प्रशासनिक अधिकारी ही नहीं, मीडिया और न्यायकर्मी भी सावधान रहते हैं। यह कटु सत्य सब जानते हैं। पर तब भी वास्तविक दबे-कुचले, उपेक्षित, निर्बल वर्गों की खोज-खबर नहीं ली जाती। संविधान में वर्णित अल्पसंख्यकप्रावधान अपने अंतर्विरोध और अस्पष्टता के चलते घटिया और देश-विभाजक राजनीति का हथकंडा बन कर रह गया है।     
यह हथकंडा ही है, यह इससे प्रमाणित होगा कि मनमाने अर्थ वालेअल्पसंख्यकको गलत बताने, या उसकी एकाधिकारी सुविधाओं को खारिज करने वाले सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों को सरसरी तौर पर उपेक्षित कर दिया जाता है। अर्थात वोट बैंक के लालच में नेतागण जो करना तय कर चुके हैं, उसके अनुरूप ही वे न्यायालय की बात मानते हैं, नहीं तो साफ ठुकराते हैं।
मसलन, सुप्रीम कोर्ट ने बाल पाटील और अन्य बनाम भारत सरकार’ (2005) मामले में निर्णय लिखा था, हिंदू शब्द से भारत में रहने वाले विभिन्न प्रकार के समुदायों का बोध होता है। अगर आप हिंदू कहलाने वाला कोई व्यक्ति ढूंढ़ना चाहें तो वह नहीं मिलेगा। वह केवल किसी जाति के आधार पर पहचाना जा सकता है। ...जातियों पर आधारित होने के कारण हिंदू समाज स्वयं अनेक अल्पसंख्यक समूहों में विभक्त है। प्रत्येक जाति दूसरे से अलग होने का दावा करती है।
जाति-विभक्त भारतीय समाज में लोगों का कोई हिस्सा या समूह बहुसंख्यक होने का दावा नहीं कर सकता। हिंदुओं में सभी अल्पसंख्यक हैं।क्या अल्पसंख्यक की किसी चर्चा में इस निर्णय और सम्मति का कोई संज्ञान लिया जाता है? अगर नहीं, तो क्यों?
इस संदर्भ में दिनोंदिन बिगड़ती जा रही स्थिति से क्या अनिष्ट संभावित है, यह भी सुप्रीम कोर्ट के उसी निर्णय में है। न्यायाधीशों ने 1947 में देश-विभाजन का उल्लेख करते हुए वहीं पर लिखा है कि अंग्रेजों द्वारा धार्मिक आधार पर किसी को अल्पसंख्यक मानने और अलग निर्वाचक-मंडल बनाने आदि कदमों से ही अंतत: देश के टुकड़े हुए।
इसीलिए न्यायाधीशों ने चेतावनी भी दी, ‘अगर मात्र भिन्न धार्मिक विश्वास या कम संख्या या कम मजबूती, धन-शिक्षा-शक्ति या सामाजिक अधिकारों के आधार पर भारतीय समाज के किसी समूह के अल्पसंख्यकहोने का दावा स्वीकार किया जाता है, तो भारत जैसे बहु-धार्मिक, बहु-भाषाई समाज में इसका कोई अंत नहीं रहेगा।
न्यायाधीशों ने धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक होने की भावना को प्रोत्साहित करनेके प्रति विशेष चिंता जताई, जो देश में विभाजनकारी प्रवृत्ति बढ़ा सकती है। क्या हमारे अधिकतर नेता और बुद्धिजीवी पूरे उत्साह से वही नहीं कर रहे हैं?

Thursday, September 5, 2013

All things are only for vote

वोट की खातिर गरीबों को टुकड़ा फेंकना शर्मनाक है।

वोट लेने के लिए देश के साथ धोखा


By Vivek Shukla on September 2, 2013
http://www.niticentral.com/2013/09/02/fraud-vote-127398.html

किसी को भी इस बात से क्या आपत्ति हो सकती है भूखे की पेट की आग बुझ जाए। आखिर किसी भी सरकार के लिए इससे जरूरी क्या हो सकता है। भोजन गारंटी बिल के कानूनी जामा पहनने के बाद देश की 67 फीसद आबादी यानी 82 करोड़ लोग इसके दायरे में होंगे। यानी गरीबी रेखा से नीचे (प्राथमिक या बीपीएल श्रेणी के परिवार ) और सामान्य परिवार (गरीबी रेखा से ऊपर या एपीएल परिवार) की श्रेणियों में आने वाले परिवारों को सस्ते दर पर चावल और गेहूं मुहैय्या करवाया जाएगा।
पर बड़ा सवाल यह है कि जिन्हें सस्ता भोजन मिलेगा,उन्हें अगर किसी रोजगार के लायक तैयार किया जाता तो ज्यादा बेहतर नहीं रहता। पर इस तरफ ध्यान नहीं दिया गया।
बहरहाल, भोजन गारंटी बिल के कानून बनने के बाद 82 करोड़ लोगों को हर महीने पांच किलो चावल, गेंहू या मोटा अनाज क्रमश: तीन,दो और एक रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से मिलेगा।
ये सब करने के लिए देश को 50 मिलियन टन खाद्न्नों की खरीद, भंडारण,एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने और अंत में उसे सही पात्रों को देना होगा। क्या देश इतनी बड़ी चुनौती को लेने के लिए तैयार है ?
ये सब करने के लिए फूड कारपोरेशन आफ इंडिया (एफसीआई) को अपनी क्षमता में 40 फीसद का इजाफा करना होगा।
अगले लोकसभा चुनावों में अपने हक में वोट गिरवाने के इरादे से मुफ्त भोजन गारंटी स्कीम को लागू करने की चाहत रखने वाली सरकार अब खुद ही एक्सपोज हो रही है। उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्री के.वी.थॉमस राज्य सभा में बता रहे थे कि इसे लागू करने के लिए के लिए हर वर्ष 614.3 लाख टन अनाज की आवश्यकता का अनुमान है। जबकि एफसीआई की 2013 में भंडारण क्षमता 391.79 लाख टन थी। इसके अलावा राज्य स्तरीय एजेंसियों के पास अनाज भंडारण क्षमता 354.28 लाख टन है। वे यह भी मान रहे कि भंडारण क्षमता को बढ़ाने के लिए सरकार निजी उद्यमियों, केंद्रीय व राज्य सरकार के माल-गोदाम निगमों द्वारा भंडारण गोदामों के निर्माण के लिए निजी उद्यमी गारंटी स्कीम (पी.ई.जी) लागू कर रही है।
मतलब बहुत साफ है कि सरकार ने भोजन गारंटी कानून बनाने की तरफ बढ़ रही है, पर उसे लागू करने की उसके पास अभी योजना नहीं है।
यही नहीं, जिन पात्रों को अन्न देना है, उनकी आबादी साल 2035 तक बढ़ती जाएगी। तब हमारी आबादी हो जाएगी 160 करोड़। तब माना जा रहा है कि हमारी आबादी की रफ्तार थमने लगे। मनरेगा में जिस तरह की लूट हो रही है, उसकी पुनरावृत्ति इस स्कीम में भी होने की आशंका जाहिर की जा रही है। वजह बहुत साफ है।
सरकार ने सार्वजिनक वितरण प्रणाली (पीडीए) को चुस्त किए बगैर ही इसे लागू करने की योजना बना ली। क्या ये दुबारा बताने की जरूरत है कि हमारी पीडीएस प्रणाली में कितनी खामियां हैं।
लोकसभा में इस बिल पर चर्चा के दौरान भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने बिल्कुल ठीक कहा था कि उसे इसे पारित करने की इतनी जल्दी क्यों हैं,जबकि उसकी तैयारी पूरी नहीं है।
अब जरा बात यह भी हो जाए कि देश को फूड सुरक्षा देने के नाम पर कितना वित्तीय स्तर पर बोझ उठाना पड़ेगा। एग्रीकल्चर कॉस्ट्स एंड प्राइसेज कमीशन के चेयरमेन डा. अशोक गांगुली ने भी माना कि अब देश को बड़े वित्तीय बोझ को सहने के लिए तैयार रहना चाहिए।
सरकार को हर एक किलोग्राम गेंहू और चावल पर क्रमश 16 और 21 रुपये की सबिस्डी देनी होगी। ये सब्सिडी तब और बढ़ जाएगी जब अन्न का इंपोर्ट करना होगा। क्या देश इतनी बड़ी आबादी के लिए इतनी सब्सिडी देने की स्थिति में है ?
सरकार भले ही करदाताओं पर टैक्स और बढ़ा दे और टैक्स के जाल का विस्तार कर दे पर उसके लिए वित्तीय बोझ का सामना करना कठिन होगा।
प्रख्यात अर्थशास्त्री डा. सुरजीत भल्ला कहते हैं कि मुफ्त भोजन गारंटी स्कीम की सालाना कीमत 3,14,000 करोड़ होगी। उधर, रायटर्स के स्तम्भंकार एंडी मुखर्जी मानते हैं कि फूड सुरक्षा के नाम पर देश को खर्च करने होंगे सालाना 25 अरब रुपये। इऩमें थोड़ा बहुत फर्क हो सकता है, पर ये आंकड़े बहुत बेहद डरावनी तस्वीर पेश करते हैं।
सरकार इस योजना की कुल सालाना लागत 1.25 लाख करोड़ रुपये लगा रही है। यह रकम देश के सकल घरेलू उत्पाद का एक फीसद है। बेशक, लोकतंत्र में सियासी दल लोकलुभावन वादे करते हैं। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। आखिर वे कोई साधुओं की जमात नहीं होते। पर उन्हें वादे सोच-समझकर करने होंगे। वादे और उनका क्रियान्वयन इस तरह से न हो जिससे कि देश की अर्थव्यवस्था ही तार-तार हो जाए। अफसोस कि यूपीए सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। चूंकि यूपीए प्रमुख सोनिया गांधी की चाहत थी कि मुफ्त भोजन गारंटी योजना को लागू किया जाए तो उसे आधे-अधूरे और अधकचरे तरीके से लागू करने की तरफ कदम बढ़ा दिए गए। सुरजीत भल्ला कहते हैं कि पहल से ही वित्तीय घाटे के बोझ से हाँफ्ते देश के खजाने पर इस कार्यक्रम से और भार बढ़ेगा। सरकार इस योजना को लागू करने के लिए धन कहां से जुटाएगी ?
यह भी कम अफसोसजनक बात नहीं है कि लोकसभा ने देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को सस्ता अनाज देने का वादा तो कर लिय़ा, पर कृषि क्षेत्र की बदहाली को दूर करने के लिए कोई क्रांतिकारी पहल नहीं की।
नेशनल काउंसिल आफ एप्लाइड इक्नोमिक रिसर्च (एनसीएईआर) से जुड़े कृषि अर्थशास्त्री डा. दिलीप कुमार कहते है, हम भले ही अपने को कृषि प्रधान देश कहें पर पर हमारी खेती की भूमि लगातार कम हो रही है। वजह, खेती की जमीन में एसईजेड, उद्योग, आवासीय कॉलोनियां, एयरपोर्ट और सड़कें बना दी गईं या बन रहे हैं। नई आर्थिक नीतियों के बाद खेती की जमीन का तेजी से गैर कृषि कार्यो के लिए उपयोग होने लगा। 1980-90 के दौरान प्रतिवर्ष 1.96 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि घट रही थी, वहीं पिछले दशक में यह रफ्तार बढ़ कर 2.25 हेक्टेयर प्रतिवर्ष हो गई है। यदि एक हजार हेक्टेयर कृषि भूमि कम होती है तो 100 किसानों एवं 760 खेतिहर मजदूरों की आजीविका छिन जाती है।
अन्तरराष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा एजेंसी एफएओ के अनुसार खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोत्तरी की सालाना रफ्तार 2.6 फीसदी होनी चाहिए, लेकिन यह 1.7 फीसदी पर ही स्थिर है।
भारत को लेकर इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस की स्टडी चौंकाने वाली है। स्टडी के अनुसार भारत में दलहन, तिलहन की तो छोड़िए गेहूं, चावल एवं गन्ने का उत्पादन भी जरूरत के हिसाब से नहीं बढ़ रहा है। जब कृषि क्षेत्र की यह तस्वीर है तो हम कहां से अन्न लगाएंगे गरीबों को देने के लिए। इंपोर्ट करने के अलावा हमारे पास कोई रास्ता नहीं है। इंपोर्ट करेंगे तो देश वित्तीय बोझ के तले दबता जाएगा।
भारत के कृषि वैज्ञानिकों के समक्ष इस समय सबसे बड़ी चुनौती 2020 तक देश के अन्न उत्पादन को 290 मिलियन टन तक पहुंचाने की है। इस समय हमारा अन्न उत्पादन 250 मिलियन टन है। इसका अर्थ है कि हमें 5 मिलियन टन अन्न हर वर्ष बढ़ाना होगा, तभी बढ़ती आबादी को खाद्य सुरक्षा प्रदान कर पाएंगे। कृषि वैजाऩिक डॉ. केएस खोखर कहते हैं कि भविष्य में हमारा देश दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश बनने जा रहा है। कृषि योग्य भूमि निरंतर घट रही है क्योंकि बढ़ती जनसंख्या के कारण शहरीकरण बढ़ रहा है।
ज्यादा कृषि उत्पादन लेने के कारण भूमि में खनिज उर्वरकता समाप्त हो रही है जिसे रोकने के लिए कीटनाशकों व फर्टिलाइजर्स का अत्याधिक प्रयोग हो रहा जो कि मानवीय व अन्य जीवों के स्वास्थ्य के लिए खतरा बन गए हैं।
सबसे ज्यादा चिंता का विषय है कि टेक्नॉलोजी में कोई नई क्रांति नहीं आ रही। इसलिए कृषि उत्पादन प्रति एकड़ बढ़ाना तो दूर की बात है वर्तमान दर को बनाए रखना भी कठिन हो रहा है।
चलते-चलते यह सवाल अपनी जगह पर खड़ा है कि जो देश 82 करोड़ जनता को सस्ता अनाज दे रहा है, क्या उसे इन लोगों को रोजगार प्रदान करने अथवा आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में पहल नहीं करनी चाहिए थी ? वोट की खातिर गरीबों को टुकड़ा फेंकना शर्मनाक है।

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