मई माह के अंतिम सप्ताह में मुंबई में हुई भारतीय जनता पार्टी
की कार्यकारी मंडल की बैठक के समय दिखाई दिया तनातनी का नाट्य, अभी भी समाप्त नहीं हुआ है. गुजरात
के मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के अहंकारी हठ के आगे, भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व ने शराणागति
स्वीकार की, यह किसी
के भी गले नहीं उतरा. ३० मई के ‘भाष्य’
में, मैंने आगे ऐसा भी कहा था कि, पार्टी की प्रतिष्ठा की अपेक्षा
व्यक्ति की प्रतिष्ठा सम्हालने की कृति न नैतिक दृष्टि से समर्थनीय है, न राजनीतिक दृष्टि से लाभदायक.
मैंने ऐसा भी सूचित किया था कि, श्री
संजय जोशी की बलि लेना योग्य नहीं था. मुंबई की बैठक के समय श्री संजय जोशी ने
कार्यकारिणी की सदस्यता का त्यागपत्र दिया था. नया समाचार यह है कि, उन्होंने पार्टी की सदस्यता से भी
त्यागपत्र दिया और वह स्वीकार भी किया गया. यह, श्री मोदी की संपूर्ण विजय मानी जा रही है
लेकिन, इससे संजय जोशी
की प्रतिष्ठा बढ़ी है, यह
निश्चित.
अडवाणी जी द्वारा आलोचना
मैरी कल्पना थी कि, मामला उसी समय समाप्त हो गया. कम से
कम, आगामी दिसंबर में
श्री गडकरी का पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्षपद पर चुनाव होने तक सब ठीक चलेगा.
लेकिन यह कल्पना गलत साबित हुई. और उस कल्पना को धक्का देने वाली व्यक्ति कोई
सामान्य नहीं. पार्टी के सर्वश्रेष्ठ और सर्वज्येष्ठ नेता लालकृष्ण अडवाणी जी ने
ही वह गलत साबित की. जिस दिन भाजपा के साथ अनेक राजनीतिक पार्टियों ने, पेट्रोल की कीमत में हुई अमर्याद
वृद्धि के विरोध में ‘भारत
बंद’ का आवाहन किया था,
उसी दिन, अडवाणी जी ने, नाम न लेते हुए, पार्टी अध्यक्ष श्री गडकरी की कडी
आलोचना की. अडवाणी जी ने अपने ब्लॉग पर जो लिखा और उसका जो समाचार प्रकाशित हुआ,
वह पार्टी के पदाधिकारियों को
निश्चित ही अस्वस्थ करने वाला है.
अडवाणी जी ने लिखा है कि,
‘‘सांप्रत पार्टी में वातावरण
उत्साहवर्धक नहीं. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के परिणाम, भ्रष्टाचार के आरोप के कारण मायावती सरकार
ने जिसे हकाला, उस
मंत्री का भाजपा में स्वागत, झारखंड
और कर्नाटक की परिस्थिति से निपटने की पार्टी की नीति - इन घटनाओं ने भ्रष्टाचार
के विरुद्ध पार्टी ने जो अभियान शुरू किया है, उसे कमजोर किया है.’’
अडवाणी जी ने जो कहा, उसमें कुछ भी गलत नहीं है. बाबुसिंग
कुशवाह को भाजपा में प्रवेश देना यह गलती थी. उनका प्रवेश रोककर वह गलती सुधारी
गई. उसी प्रकार विवादास्पद उद्योगपति अंशुमान मिश्र को राज्य सभा में आने के लिए
अनुमति दर्शाना भी गलती थी. लेकिन वह गलती भी सुधारी गई. फिर अडवाणी जी का गुस्सा
क्यों है? और उन्होंने
वह ‘भारत बंद’ के दिन ही प्रकट करने का क्या कारण?
समाचारपत्रों ने, श्री गडकरी के नेतृत्व पर यह हमला
है, ऐसा उसका अर्थ
लगाया, तो उन्हें कैसे
दोष दे?
नाराजगी का निश्चित कारण?
मुंबई में जो हुआ, उसके कारण अडवाणी जी नाराज है,
यह स्पष्ट है. लेकिन इस
नाराजगी का निश्चित कारण क्या है? श्री
गडकरी को, पुन:,
तुरंत तीन वर्ष के लिए
अध्यक्षपद मिले, इस
हेतु से, पार्टी के
संविधान में जो संशोधन किया गया, इस
कारण वे नाराज हुए, या
श्री मोदी के सामने पार्टी अध्यक्ष ने घुटने टेके इस कारण उनकी नाराजगी है?
श्री मोदी और अडवाणी जी के
संबंधों को देखे, तो
श्री मोदी को खुष करने के लिए श्री संजय जोशी की बलि दी गई, इससे वे क्रोधित हुए होगे, ऐसा नहीं लगता. श्री संजय जोशी के
बारे में उन्हें बहुत अधिक सहानुभूति थी, ऐसा पार्टी संगठन में काम करने वाले लोगों का मत नहीं है. श्री
संजय जोशी का निष्कलंकत्व सिद्ध होने के बाद भी, उनका पुन: पार्टी में स्वागत करने के लिए
अडवाणी जी ने प्रयास करने का समाचार नहीं है. इस कारण, उनकी नाराजगी का कारण, श्री गडकरी को पुन: तीन वर्ष
अध्यक्षपद देने के लिए जो व्यूहरचना मुंबई में की गई, वही होना चाहिए, ऐसा निष्कर्ष कोई निकाले तो उसे दोष नहीं
दिया जा सकता. समाचार यह है कि, कर्नाटक
से लोकसभा में चुनकर गये सांसद अनंत कुमार को पार्टी अध्यक्ष बनाए, ऐसी अडवाणी जी की इच्छा थी. पार्टी
संविधान में संशोधन के कारण, श्री
गडकरी का रास्ता साफ हुआ और श्री अनंत कुमार का रास्ता बंद हुआ, इस कारण अडवाणी जी नाराज हुए,
ऐसा एक तर्क है. अडवाणी जी की
प्रतिक्रिया देखते हुए वही अपरिहार्य सिद्ध होता है और अपने ब्लॉग पर के वक्तव्य
से वह गुस्सा उन्होंने सार्वजनिक रूप से व्यक्त किया, इस निष्कर्ष तक जाना पड़ता है. अडवाणी जी
जैसे ज्येष्ठ, प्रगल्भ
नेता संयम खोए इसका किसे भी आश्चर्य ही होगा.
दूरदर्शन चॅनेल पर की
चर्चा
गत सप्ताह मेरे पास दूरदर्शन
के दो-तीन चॅनेल के प्रतिनिधि आकर गये. ऐसा लगा कि, उन्हें मेरे ३० मई के ‘भाष्य’ में के कुछ वचनों की जानकारी होगी. उनके सब
प्रश्न श्री नरेन्द्र मोदी के संदर्भ में थे. उस भाष्य में मैंने जो लिखा था,
मैंने उसकी ही पुनरुक्ति की.
मैंने उन्हे बताया कि, ‘‘पार्टी
की अपेक्षा व्यक्ति श्रेष्ठ नहीं है. जहॉं व्यक्ति श्रेष्ठ और पार्टी कनिष्ठ होती
है, वे पार्टियॉं
व्यक्ति केन्द्रित होती है. ऐसी अनेक पार्टियॉं हमारे देश में है. मैंने सपा,
बसपा, द्रमुक, अद्रमुक, शिवसेना, तेलगू देसम् जैसी पार्टियों के नाम भी
गिनाए. भाजपा, वैसी
व्यक्ति केन्द्रित पार्टी नहीं. हो भी नहीं सकेगी. इसलिए मोदी के हठ के आगे पार्टी
ने झुकने का कारण नहीं था.’’ फिर
उन्होंने पार्टी का, प्रधानमंत्री
पद का उम्मीदवार कौन, मोदी
उस दृष्टि से कैसे है, ऐसे
प्रश्न मुझे पूछे. मैंने कहा, २०१४
में प्रधानमंत्री कौन बनेगा इसकी चर्चा आज अप्रस्तुत है. पहले अगले महिने में
राष्ट्रपतिपद का चुनाव है. उसे अधिक महत्त्व है. फिर २०१२ समाप्त होने के पूर्व
गुजरात विधानसभा का चुनाव है. श्री मोदी उस समय स्वयं चुनाव में उतरते है या नहीं,
उस चुनाव का परिणाम क्या
निकलता है, भूतपूर्व
मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल और सुरेश मेहता, भूतपूर्व गृहमंत्री झाडफिया मोदी के विरोध में मैदान में उतरे
है, उनके विरोध का
क्या परिणाम होता है, वह
देखना होगा. उसी प्रकार २०१३ में होने वाले विधानसभाओं के चुनाव परिणाम भी देखने
होगे. उसके बाद ही यह प्रश्न समयानुकूल सिद्ध होगा. उसके बाद दूसरे दिन ही
समाचारपत्रों में, श्री
मोदी, केशुभाई पटेल और
उनके साथीयों के रवैये से हडबडाए है ऐसा सूचित करने वाला समाचार प्रसिद्ध हुआ है.
वह समाचार
३ जून को, भेसान नगर में भाजपा के एक नगर
प्रतिनिधि भूपत भायानी पर गोली चलाई गई. इस गोलीकांड के निषेध में भेसान के लोगों
का जो क्षोभ प्रकट हुआ, उसमें
नौ दुकान जलाए गए. इन नौ दुकानों में बहादुर खुमान इस व्यक्ति की पान की दुकान थी.
वह दुकान जलाए जाने के बारे में उसने न्यायालय में शिकायत की. और उस शिकायत में
उसने आरोप किया कि, केशुभाई
पटेल और गोवर्धन झाडफिया ने जो प्रक्षोभक भाषण किए, उसी कारण यह आगजनी हुई. इसलिए बहादुर खुमान
ने इन लोगों के विरुद्ध भेसान के न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है. यह सच है कि,
भडकाऊ भाषणों के कारण
लोकक्षोभ निर्माण हो सकता है. भेसान में भी यह हो सकता है. लेकिन दिलचस्व बात यह
है कि, यह आरोपित
भडकाऊ भाषण ११ मार्च को हुए थे. मतलब करीब तीन माह वातावरण शांत था. वह पौने तीन
माह के बाद भडका. वह भाषण इतने उग्र थे कि, तीन माह तक उन्होंने निर्माण किया क्षोभ जनता
के मन में सुलगता रहा और भायानी पर की गोलीबारी की घटना से ३ जून को प्रकट हुआ! और
उसमें उस बेचारे गरीब पान वाले का ठेला जलाया गया. अर्थात्, अपराधियों के विरुद्ध अपराध दर्ज होना ही
चाहिए. उस प्रकार केशुभाई पटेल और अन्य लोगों के विरुद्ध धारा २०२ के अंतर्गत
अपराध दर्ज किया गया है. और उसमें भी मजे की बात यह कि, वह आरोपित भडकाऊ भाषण भेसान में हुए ही नहीं
थे. भेसान के समीप मोटा कोटदा गॉंव में वह हुए थे. वहॉं ११ मार्च को लेवा पटेलों
की एक सामाजिक बैठक हुई थी, उसमें
वह भाषण हुए थे. इस कारण लेवा पटेल भडके और उन्होंने पौने तीन माह बाद बहादुरभाई
की दुकान जलाकर अपना क्षोभ व्यक्त किया! यह कितनी मजेदार बात है!
यह सब ब्यौरा देने का कारण यह
कि, राजनीति में अपने
विरोधियों का बदला लेने की एवंगुणविशिष्ट श्री नरेन्द्र मोदी की यह शैली है. उनके
सरकार की प्रेरणा के बिना बहादुरभाई ऐसी बहादुरी प्रकट करने की हिंमत करते?
अकालिक चर्चा
यह कुछ विषयांतर ही हुआ. मूल
प्रश्न २०१४ में भाजपा का प्रधानमंत्रीपद का उम्मीदवार कौन, यह था और हर तरीके से यही प्रश्न,
दूरदर्शन के तीनों चॅनेलों ने
पूछा. मैंने, जिस
प्रकार २०१२ के चुनावों का संदर्भ दिया, उसी प्रकार २०१३ में होने वाले चुनावों का संदर्भ भी दिया.
भाजपा की, जिन राज्यों
में जड़े मजबूत जमी है, उन
राज्यस्थान, मध्य
प्रदेश, छत्तीसगढ़,
कर्नाटक इन राज्यों की
विधानसभा के चुनाव २०१३ में होने है. इनमें से तीन राज्यों में भाजपा की
सरकारें हैं. उन चुनावों के परिणाम क्या आते है, इस पर सब निर्भर है. इस कारण, २०१४ में अपना प्रधानमंत्रीपद का
उम्मीदवार कौन यह भाजपा, उससे
पूर्व कभी भी नहीं बताएगी. इस पद के लिए लायक नेताओं की भाजपा में कमी भी नहीं है.
मैंने यह भी बताया कि, इंग्लंड
में जो विपक्ष का नेता होता है, उसकी
पार्टी चुनाव में बहुमत में आती है, तो वही प्रधानमंत्री बनता है. हमारे यहॉं वैसी पद्धति होती,
तो श्रीमती सुषमा स्वराज
प्रधानमंत्री बनती. इसके अलावा, और
एक बात ध्यान में लेनी होगी. और वह है २०१४ में भाजपा को मिलने वाली सिटें. भाजपा
को २०० से कम सिटें मिलती है तो भाजपा को, अपने मित्र पार्टियों के मत का आदर करना ही होगा. लेकिन भाजपा
२५० के करीब पहुँचती है (यह संभावना आज दिखाई नहीं देती. लेकिन २०१३ के चुनाव यह
परिस्थिति बदल सकते है.) तो मित्र पार्टियों को भाजपा की बात माननी होगी. तात्पर्य
यह कि भाजपा का प्रधानमंत्रीपद का उम्मीदवार कौन इसकी चर्चा २०१२ में अप्रस्तुत है,
अकालिक (प्रिमॅच्युअर) है.
दूरदर्शन चॅनेल के साथ की चर्चा पॉंच-दस मिनटों में समाप्त हुई. मैंने उन्हें जो
बताया उसका यह सार है.
एक नई शंका
यह भाष्य लिखते समय, मेरे मन में एक संदेह निर्माण हुआ
है. समाचारपत्र और प्रसार माध्यम श्री नरेन्द्र मोदी का नाम इतना क्यों उछाल रहे
है? क्या इसके पीछे
किसी की कुछ प्रेरणा है? श्री
मोदी की प्रेरणा होगी, ऐसा
मुझे नहीं लगता. इसका अर्थ श्री मोदी की प्रधानमंत्री बनने की महत्त्वाकांक्षा नहीं,
ऐसा नहीं. उनकी वह
महत्त्वाकांक्षा होगी भी; और
उसमें अनुचित कुछ भी नहीं. राजनीति में इस बारे में किसे भी दोष देने का कारण भी
नही. राजनीति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तो है नहीं, जहॉं ‘मैं नहीं तू ही’ का आदर्श रहता है. लेकिन श्री मोदी स्वयं यह
सब करवाते होगे, ऐसा
मुझे नहीं लगता. वे बहुत चतुर राजनीतिज्ञ है. अपनी चाल वे बहुत समझदारी से चलते
होगे. वे अपना ऐसा अशिष्ट प्रचार नहीं करेगे. इसलिए, मुझे संदेह है कि, भाजपा के विरोधी पार्टियों की ही यह रणनीति
होगी. भाजपा ने मोदी को प्रधानमंत्रीपद का उम्मीदवार घोषित किया, या जनमानस में ऐसा चित्र निर्माण
हुआ कि, मोदी ही भाजपा
के भावी प्रधानमंत्री होगे, तो
अल्पसंख्यकों को और भाजपा की मित्र पार्टियों को भाजपा से अलग करना संभव होगा और
फिर तीसरा मोर्चा मजबूत बनेगा, ऐसा
उनका अंदाज होगा. भाजपा के विरोधियों ने अपने लाभ के लिए ऐसी कूटनीति का अवलंब
करने में अप्रूप कुछ भी नहीं. लेकिन भाजपा, उस जाल में न फंसे, ऐसी अपेक्षा है.
एकजुट आवश्यक
३० मई के ‘भाष्य’ में भाजपा के भविष्य के दृष्टि से मैंने कुछ
विचार प्रस्तुत किए थे. उनका पुनरुच्चार यहॉं नहीं करता. आज सबसे महत्त्व की
आवश्यकता है, पार्टी
में एकजुट रहने की और वह है ऐसा दिखने की. सब महत्त्व के निर्णय सामूहिक
विचारविनिमय से लिए जाने चाहिए. निर्णय के पूर्व विचारविनिमय होते समय, भिन्न भिन्न मत प्रकट होगे ही. वैसा
होना भी चाहिए. लेकिन एक बार समूह का निर्णय होने के बाद वह अपना ही निर्णय है,
ऐसी सबकी भूमिका रहनी चाहिए.
यह संघ की रीति है. किसी भी संस्था या संगठन के स्वास्थ्य के लिए यह रीति उपकारक
है. क्या संघ के समान विशाल संगठन में भिन्न भिन्न मत धारण करने वाले नही होगे?
लेकिन वह सब विचारविनिमय की
बैठक में प्रकट होते है और जो निर्णय लिया जाता है, वह सामूहिक रूप से सबका और व्यक्तिगत रूप से
हर किसीका निर्णय होता है. भाजपा में संघ के संस्कारों में से गये अनेक लोग है,
उन्हें संघ की इस रीति की
जानकारी होगी ही. लेकिन भाजपा में ऐसा दिखाई नहीं देता. पार्टी के संविधान में के
संशोधन को विरोध होगा, तो
अडवाणी जी ने वह उस सभा में व्यक्त करना था; और बहुमत का निर्णय मान्य करना था. निर्णय
होने के बाद उस संबंध मे सार्वजनिक रूप में नाराजगी व्यक्त करना यह उनके जैसे
ज्येष्ठ नेता का गौरव और सम्मान बढ़ाने वाली बात नहीं है. पार्टी एकजुटता से चल रही
है, ऐसी मुहर जनता में
और कार्यकताओं के मन में अंकित होनी चाहिए. इस दृष्टि से अडवाणी जी ने की आलोचना
असमर्थनीय है.
विकल्प भाजपा ही
आज का सत्तारूढ संप्रग
(संयुक्त प्रतिशील गठबंधन),
बहुत
ही बदनाम हुआ है. अनेक आर्थिक घोटालों के कारण ग्रस्त और त्रस्त है. २०१४ में वह
पुन: सत्ता हासिल करेगा,
ऐसी
यत्किंचित भी संभावना नहीं है. इस परिस्थिति में भाजपा ही सर्वोत्तम विकल्प है.
लेकिन जनता को इसका अहसास होना चाहिए. इस दृष्टि से भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने
गंभीरता से आत्मपरीक्षण करना चाहिए. २०१३ के विधानसभाओं के चुनाव के लिए
उम्मीदवारों का चयन,
घोषणापत्र
की निर्मिति,
प्रचार
यंत्रणा आदि के बारे में पार्टी एकजुट होकर खड़ी है,
ऐसा चित्र निर्माण होना चाहिए. वही
कार्यकर्ताओं के बीच उत्साह का वातावरण निर्माण करेगा. इस उत्साह निर्मिति की
प्रक्रिया में जो बाधा निर्माण करने का प्रयास करेंगे उन्हें सही तरीके से समझ
देने की क्षमता और सिद्धता पार्टी नेतृत्व में होनी चाहिए. फिर वह व्यक्ति कितने
भी बड़े पद पर हो. ऐसी एकजुटता से युक्त,
संयम के साथ प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले,
अनुशासित,
चारित्र्यसंपन्न कार्यकर्ताओं की पार्टी के
रूप में भारतीय जनता पार्टी आगामी दो वर्षों में खडी होनी चाहिए. इसीमें पार्टी और
राष्ट्र का भी हित निहित है.
- मा. गो. वैद्य
babujivaidya@gmail.com
(अनुवाद : विकास
कुलकर्णी)