माओवाद से आधी-अधूरी लड़ाई
माओवाद पर अंकुश लगाने में विफलता के लिए सरकार की रणनीति को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं बीआर लाल
आज नक्सलवाद और माओवाद की समस्या एक कैंसर का रूप लेती नजर आ रही है। सरकार इस रोग को खत्म करने का जितना प्रयास करती है, यह उतना ही अधिक फैलता जाता है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर कमी कहां है और समाधान क्या है? यहां जो सबसे बड़ी भूल की जा रही है वह है नक्सलवाद और माओवाद को एक मान लेना। यही कारण है कि नक्सलवाद को खत्म करने के लिए चलाए जा रहे अभियान विफल और निष्प्रभावी हो रहे हैं। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1990 में मात्र 16 जिलों तक सीमित नक्सलवाद आज देश के 240 जिलों में फैल चुका है। नक्सलवाद के खिलाफ कोई भी रणनीति बनाने से पहले हमें समझना होगा कि माओवाद एक राजनीतिक विचारधारा है जिनका लक्ष्य हिंसा के माध्यम से सत्ता हथियाना है, जबकि नक्सलवादी वे लोग हैं जो देश के विकास का हिस्सा नहीं बन सके हैं। नक्सलवादी बेहद निर्धन, कमजोर और असहाय हैं जो अपनी रोजी-रोटी और तरक्की चाहते हैं। नक्सलवादी विकास और रोजगार चाहते हैं, जबकि माओवादी विकास विरोधी हैं। इस बुनियादी फर्क को समझना होगा। नक्सलवाद में शामिल ज्यादातर लोग जंगलों में रहने वाले आदिवासी और घुमक्कड़ जनजातियों से हैं। माओवादी अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए इस वंचित वर्ग को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। वे इन लोगों को बड़ी आसानी से बहला-फुसला लेते हैं। इस तरह माओवादियों को बहुत कम पैसे में उनकी लड़ाई में साथ देने वाले नक्सली मिल जाते हैं। माओवादी प्रत्येक नक्सली को एक हजार रुपये और उनके परिवार वालों को दो हजार रुपये प्रति माह देते हैं। इस तरह एक नक्सली पर साल भर में कुल 36,000 रुपये खर्च होते हैं। एक अनुमान के मुताबिक पूरे देश में करीब 20 हजार नक्सली हैं। इस तरह पूरे साल उन्हें करीब 72 करोड़ रुपये खर्च करके एक बड़ी सेना मिल जाती है जो अनजाने में अपने ही देशवासियों के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे होते हैं। परंतु सरकार में बैठे नीति-निर्माता इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं कि उन्हें लड़ाई नक्सलियों से लड़नी है या माओवादियों से? आजादी के बाद हम आर्थिक तरक्की की रफ्तार तेज करने में लगे रहे, लेकिन भूल गए कि पिछड़े क्षेत्र के लोगों को भी विकास में भागीदार बनाया जाए। आज यदि पूर्वोत्तर के हिस्सों से लेकर देश के कुछ अंदरूनी और सीमावर्ती राज्यों में अलगाववाद, नक्सलवाद और उग्रवाद को हवा मिल रही है और उन्हें विदेशियों से मदद मिल रही है तो इसके लिए दोष आखिर किसका है? केवल छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद प्रभावित 1.5 करोड़ लोग हैं। यदि हम इस आबादी को आजीविका के साधन के साथ-साथ यह भरोसा दे सकें कि उन्हें उनकी भूमि से बेदखल नहीं किया जाएगा, उनके क्षेत्र के संसाधनों की लूट नहीं होने दी जाएगी तथा वहां के खनिजों व प्राकृतिक संसाधनों से होने वाली कमाई में उन्हें भी हिस्सा मिलेगा तो शायद ही कोई नक्सली बनना चाहेगा। माओवादी जितना पैसा नक्सलियों और हथियारों की खरीद पर खर्च करते हैं वह विदेश से नहीं आता, बल्कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से लूटे गए प्राकृतिक संसाधनों की एवज में आता है। इस पैसे का सबसे बड़ा स्रोत खनन माफिया उपलब्ध कराते हैं। इसके अलावा विकास के लिए आए सरकारी धन, छोटे-मोटे बिजनेसमैन व नेताओं आदि से भी पैसा जुटाया जाता है। साफ है कि माओवाद-नक्सलवाद से लड़ाई के लिए हमें एक अलग योजना बनाने की जरूरत है। एक तरह जहां हमें नक्सलियों की नियुक्ति के लिए तैयार जमीन यानी रिक्रूटिंग ग्राउंड को खत्म करना होगा वहीं दूसरी ओर इनके आर्थिक स्रोतों को भी बंद करना होगा। इसके लिए दो स्तर पर कार्रवाई करनी होगी। सर्वप्रथम विकास कार्यो में तेजी लाई जाए ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार मिले। इसके लिए नए उद्योग-धंधों के साथ-साथ डेयरी फॉर्म, मछली पालन, हार्टीकल्चर जैसे रोजगारपरक बुनियादी ढांचे का विकास कम पूंजी में आसानी से किया जा सकता है। शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के विकास के लिए भी कदम उठाए जाएं। इसके साथ-साथ खनन माफियाओं को खत्म करने व प्राकृतिक संसाधनों की लूट को रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएं, क्योंकि यही वह स्रोत है जिससे माओवादियों को लड़ाई के लिए पैसा मिलता है। यही क्षेत्र काले धन के सृजन का सबसे बड़ा श्चोत भी है। पूरे देश में 22 करोड़ टन कच्चे लोहे का खनन होता है, जिसमें से अकेले छत्तीसगढ़ का हिस्सा लगभग 4 करोड़ टन का है। एक टन लोहे पर 6-7 हजार की चोरी होती है। इस तरह पूरे देश में करीब एक लाख 10 हजार करोड़ रुपये का और अकेले छत्तीसगढ़ में करीब 20 हजार करोड़ का काला धन खनन ठेकेदारों द्वारा प्रति वर्ष सृजित किया जाता है। इसका एक छोटा हिस्सा, करीब दो हजार करोड़ रुपया, माओवादियों को मिलता है। इससे सहज ही समझा जा सकता है कि नक्सली क्षेत्र का ज्यादा विस्तार खनिज प्रधान इलाकों में ही क्यों हुआ है? यदि माओवादियों को एक लाख नक्सली भी तैयार करने हों तो उन्हें केवल 360 करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी। इसके अलावा ट्रेनिंग और हथियार खरीदने के लिए शेष रकम जुटाना भी उनके लिए कठिन काम नहीं होगा। नक्सलियों का विस्तार छत्तीसगढ़ से सटे हुए आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और बिहार के एक लाख 50 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में है। हम 20 हजार नक्सलियों से ही नहीं लड़ पा रहे हैं। यदि यह संख्या एक लाख हो गई तो क्या होगा इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। केवल ताकत और पुलिस बल के आधार पर नक्सलवाद को काबू में करने की नीति पर सरकार को विचार करने की आवश्यकता है, क्योंकि माओवादियों को तो ताकत से कुचला जा सकता है पर नक्सलवादियों को नहीं। यदि ऐसा होता तो 1967 से शुरू हुए इस आंदोलन का इतना विस्तार नहीं होता। 4 मार्च, 1966 को मिजोरम में मात्र ढाई लाख विद्रोहियों को काबू में करने के लिए बमबारी तक की गई, लेकिन उन्हें हथियारों से दबाया नहीं जा सका और अंतत: 1985 में सरकार को बातचीत की मेज पर बैठना ही पड़ा। कुछ ऐसी ही स्थिति माओवादियों के मामले में भी बनती नजर आ रही है। बेहतर हो कि सरकार समय रहते इस समस्या पर समग्रता में विचार करे ताकि समस्या के समाधान की सही रणनीति बनाई जा सके। (लेखक हरियाणा के पूर्व डीजीपी और सीबीआइ के पूर्व संयुक्त निदेशक हैं)माओवाद पर अंकुश लगाने में विफलता के लिए सरकार की रणनीति को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं बीआर लाल
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माओवाद पर अंकुश लगाने में विफलता के लिए सरकार की रणनीति को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं बीआर लाल
आज नक्सलवाद और माओवाद की समस्या एक कैंसर का रूप लेती नजर आ रही है। सरकार इस रोग को खत्म करने का जितना प्रयास करती है, यह उतना ही अधिक फैलता जाता है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर कमी कहां है और समाधान क्या है? यहां जो सबसे बड़ी भूल की जा रही है वह है नक्सलवाद और माओवाद को एक मान लेना। यही कारण है कि नक्सलवाद को खत्म करने के लिए चलाए जा रहे अभियान विफल और निष्प्रभावी हो रहे हैं। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1990 में मात्र 16 जिलों तक सीमित नक्सलवाद आज देश के 240 जिलों में फैल चुका है। नक्सलवाद के खिलाफ कोई भी रणनीति बनाने से पहले हमें समझना होगा कि माओवाद एक राजनीतिक विचारधारा है जिनका लक्ष्य हिंसा के माध्यम से सत्ता हथियाना है, जबकि नक्सलवादी वे लोग हैं जो देश के विकास का हिस्सा नहीं बन सके हैं। नक्सलवादी बेहद निर्धन, कमजोर और असहाय हैं जो अपनी रोजी-रोटी और तरक्की चाहते हैं। नक्सलवादी विकास और रोजगार चाहते हैं, जबकि माओवादी विकास विरोधी हैं। इस बुनियादी फर्क को समझना होगा। नक्सलवाद में शामिल ज्यादातर लोग जंगलों में रहने वाले आदिवासी और घुमक्कड़ जनजातियों से हैं। माओवादी अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए इस वंचित वर्ग को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। वे इन लोगों को बड़ी आसानी से बहला-फुसला लेते हैं। इस तरह माओवादियों को बहुत कम पैसे में उनकी लड़ाई में साथ देने वाले नक्सली मिल जाते हैं। माओवादी प्रत्येक नक्सली को एक हजार रुपये और उनके परिवार वालों को दो हजार रुपये प्रति माह देते हैं। इस तरह एक नक्सली पर साल भर में कुल 36,000 रुपये खर्च होते हैं। एक अनुमान के मुताबिक पूरे देश में करीब 20 हजार नक्सली हैं। इस तरह पूरे साल उन्हें करीब 72 करोड़ रुपये खर्च करके एक बड़ी सेना मिल जाती है जो अनजाने में अपने ही देशवासियों के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे होते हैं। परंतु सरकार में बैठे नीति-निर्माता इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं कि उन्हें लड़ाई नक्सलियों से लड़नी है या माओवादियों से? आजादी के बाद हम आर्थिक तरक्की की रफ्तार तेज करने में लगे रहे, लेकिन भूल गए कि पिछड़े क्षेत्र के लोगों को भी विकास में भागीदार बनाया जाए। आज यदि पूर्वोत्तर के हिस्सों से लेकर देश के कुछ अंदरूनी और सीमावर्ती राज्यों में अलगाववाद, नक्सलवाद और उग्रवाद को हवा मिल रही है और उन्हें विदेशियों से मदद मिल रही है तो इसके लिए दोष आखिर किसका है? केवल छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद प्रभावित 1.5 करोड़ लोग हैं। यदि हम इस आबादी को आजीविका के साधन के साथ-साथ यह भरोसा दे सकें कि उन्हें उनकी भूमि से बेदखल नहीं किया जाएगा, उनके क्षेत्र के संसाधनों की लूट नहीं होने दी जाएगी तथा वहां के खनिजों व प्राकृतिक संसाधनों से होने वाली कमाई में उन्हें भी हिस्सा मिलेगा तो शायद ही कोई नक्सली बनना चाहेगा। माओवादी जितना पैसा नक्सलियों और हथियारों की खरीद पर खर्च करते हैं वह विदेश से नहीं आता, बल्कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से लूटे गए प्राकृतिक संसाधनों की एवज में आता है। इस पैसे का सबसे बड़ा स्रोत खनन माफिया उपलब्ध कराते हैं। इसके अलावा विकास के लिए आए सरकारी धन, छोटे-मोटे बिजनेसमैन व नेताओं आदि से भी पैसा जुटाया जाता है। साफ है कि माओवाद-नक्सलवाद से लड़ाई के लिए हमें एक अलग योजना बनाने की जरूरत है। एक तरह जहां हमें नक्सलियों की नियुक्ति के लिए तैयार जमीन यानी रिक्रूटिंग ग्राउंड को खत्म करना होगा वहीं दूसरी ओर इनके आर्थिक स्रोतों को भी बंद करना होगा। इसके लिए दो स्तर पर कार्रवाई करनी होगी। सर्वप्रथम विकास कार्यो में तेजी लाई जाए ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार मिले। इसके लिए नए उद्योग-धंधों के साथ-साथ डेयरी फॉर्म, मछली पालन, हार्टीकल्चर जैसे रोजगारपरक बुनियादी ढांचे का विकास कम पूंजी में आसानी से किया जा सकता है। शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के विकास के लिए भी कदम उठाए जाएं। इसके साथ-साथ खनन माफियाओं को खत्म करने व प्राकृतिक संसाधनों की लूट को रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएं, क्योंकि यही वह स्रोत है जिससे माओवादियों को लड़ाई के लिए पैसा मिलता है। यही क्षेत्र काले धन के सृजन का सबसे बड़ा श्चोत भी है। पूरे देश में 22 करोड़ टन कच्चे लोहे का खनन होता है, जिसमें से अकेले छत्तीसगढ़ का हिस्सा लगभग 4 करोड़ टन का है। एक टन लोहे पर 6-7 हजार की चोरी होती है। इस तरह पूरे देश में करीब एक लाख 10 हजार करोड़ रुपये का और अकेले छत्तीसगढ़ में करीब 20 हजार करोड़ का काला धन खनन ठेकेदारों द्वारा प्रति वर्ष सृजित किया जाता है। इसका एक छोटा हिस्सा, करीब दो हजार करोड़ रुपया, माओवादियों को मिलता है। इससे सहज ही समझा जा सकता है कि नक्सली क्षेत्र का ज्यादा विस्तार खनिज प्रधान इलाकों में ही क्यों हुआ है? यदि माओवादियों को एक लाख नक्सली भी तैयार करने हों तो उन्हें केवल 360 करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी। इसके अलावा ट्रेनिंग और हथियार खरीदने के लिए शेष रकम जुटाना भी उनके लिए कठिन काम नहीं होगा। नक्सलियों का विस्तार छत्तीसगढ़ से सटे हुए आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और बिहार के एक लाख 50 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में है। हम 20 हजार नक्सलियों से ही नहीं लड़ पा रहे हैं। यदि यह संख्या एक लाख हो गई तो क्या होगा इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। केवल ताकत और पुलिस बल के आधार पर नक्सलवाद को काबू में करने की नीति पर सरकार को विचार करने की आवश्यकता है, क्योंकि माओवादियों को तो ताकत से कुचला जा सकता है पर नक्सलवादियों को नहीं। यदि ऐसा होता तो 1967 से शुरू हुए इस आंदोलन का इतना विस्तार नहीं होता। 4 मार्च, 1966 को मिजोरम में मात्र ढाई लाख विद्रोहियों को काबू में करने के लिए बमबारी तक की गई, लेकिन उन्हें हथियारों से दबाया नहीं जा सका और अंतत: 1985 में सरकार को बातचीत की मेज पर बैठना ही पड़ा। कुछ ऐसी ही स्थिति माओवादियों के मामले में भी बनती नजर आ रही है। बेहतर हो कि सरकार समय रहते इस समस्या पर समग्रता में विचार करे ताकि समस्या के समाधान की सही रणनीति बनाई जा सके। (लेखक हरियाणा के पूर्व डीजीपी और सीबीआइ के पूर्व संयुक्त निदेशक हैं)http://in.jagran.yahoo.com/
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