क्या भारत अमेरिका की तर्ज पर आतंकवाद के खिलाफ युद्ध जीत सकता है? यदि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के बयानों को देखें तो निराशा हाथ लगती है। प्रधानमंत्री ने कहा कि आतंकी हमलों की भनक खुफिया विभाग को नहीं लगने के कारण आतंकवादी हमले को अंजाम देने में कामयाब रहे। दूसरी ओर, राहुल गांधी आतंकवादी हमलों को रोक पाना बेहद मुश्किल बता रहे हैं। उनके अविवेकी बयान के बचाव में उतरे दिग्विजय सिंह का मानना है कि भारत कम से कम पाकिस्तान से तो बेहतर है, जहां रोज बम विस्फोट हो रहे हैं। यह कैसी मानसिकता है? अमेरिका में 9/11 को हुए आतंकी हमले के बाद सुरक्षा के जो कड़े इंतजाम किए गए उसके कारण दोबारा एक भी आतंकी घटना वहां नहीं हुई। इसके विपरीत भारत में आतंकवादी कहीं भी हमला करने में सक्षम हो रहे हैं। क्यों? इससे पूर्व 26/11 को मुंबई पर बड़ा हमला हुआ था। प्रधानमंत्री-गृहमंत्री ने तब त्यौरियां चढ़ाते हुए अगला हमला होने की सूरत में भारत द्वारा जवाबी कार्रवाई करने की धमकी दी थी। आतंकवाद से निपटने के लिए चाक-चौबंद व्यवस्था करने का दावा किया गया था, किंतु 13/7 के हमले ने साबित कर दिया कि इस सरकार में आतंकवाद पर अंकुश लगाने की इच्छाशक्ति ही नहीं है। वास्तव में भारत में आतंकवाद को उपजाऊ जमीन कांग्रेस की मुस्लिम वोट बैंक की नीति और वामपंथियों के विकृत सेक्युलरवाद के कारण ही मिल रही है। राजग सरकार के कार्यकाल में आतंकवाद के खिलाफ सख्त कानून (पोटा) बनाया गया था। कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने सत्ता में आते ही पोटा को निरस्त कर आतंकियों का मानवर्द्धन किया। 26/11 के हमले के बाद राष्ट्रीय जांच एजेंसी का गठन कर सरकार ने आतंकवाद के खिलाफ शून्य सहनशीलता बरतने का दावा किया, किंतु राष्ट्रीय जांच एजेंसी की पिछले तीन साल की उपलब्धियां क्या हैं? एजेंसी ने अपनी सारी ऊर्जा कथित भगवा आतंकवाद का हौवा खड़ा करने में जाया कर दी। भगवा आतंकवाद कांग्रेस का राजनीतिक एजेंडा हो सकता है, किंतु क्या इस कुनीति से जिहाद का जहर कम हो जाएगा? प्रतिबंधित मुस्लिम छात्र संगठन-सिमी अपने नए अवतार इंडियन मुजाहिदीन के रूप में भारत की सनातन संस्कृति को निरंतर लहूलुहान करने में लगा है, वहीं भारत का सत्ता अधिष्ठान इस्लामी आतंकवाद के सामने हिंदू आतंकवाद का हौवा खड़ा करने में व्यस्त है। आज चारों तरफ अराजकता का माहौल है। देश का चालीस प्रतिशत हिस्सा नक्सली हिंसा का शिकार है। जिहादी इस्लाम का जहर कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैल चुका है। बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण कुछ राज्यों के जनसंख्या स्वरूप में बदलाव के साथ आंतरिक सुरक्षा पर भी खतरा मंडरा रहा है, किंतु सेक्युलर सत्ता अधिष्ठान हिंदू आतंक का प्रलाप कर रहा है। पोटा जैसे आतंकवाद निरोधी कानून को सेक्युलरिस्ट मुस्लिम प्रताड़ना का यंत्र बताते हैं। कुछ गैर-कांग्रेसी राज्य सरकारें जब आतंकवाद के खिलाफ कड़े कानून लाना चाहती हैं तो केंद्र सरकार उनके मार्ग में अवरोध खड़े करती हैं। गुजरात, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के आतंकवाद निरोधी कानून केंद्र सरकार के पास पिछले चार वषरें से मंजूरी के लिए लंबित हैं। सन 2005 से अब तक कम से कम बीस बड़ी आतंकवादी घटनाएं देश के भिन्न-भिन्न भागों में हुई हैं, किंतु अब तक किसी भी दोषी को सजा नहीं हो सकी है। संसद पर हमला करने की साजिश रचने वाले अफजल गुरु की फांसी की सजा लंबित है। उधर मुंबई हमलों में एकमात्र जिंदा पकड़े गए आतंकी अजमल कसाब को सुरक्षित रखने पर करोड़ों रुपये खर्च किए जा रहे हैं। क्या उसका भी हश्र अफजल गुरु जैसा ही होना है? कोयंबटूर बम धमाकों के आरोपी अब्दुल नासेर मदनी को पैरोल पर रिहा कराने के लिए तो केरल विधानसभा का विशेष सत्र होली की छुट्टी वाले दिन आयोजित किया गया था और कांग्रेस और मार्क्सवादियों ने सर्वसम्मति से उसकी रिहाई का प्रस्ताव पारित किया था। ऐसी मानसिकता के रहते क्या आतंकवाद का खात्मा संभव है? आतंकवाद को लेकर कांग्रेस का दोहरापन छिपा नहीं है। बाटला हाउस मुठभेड़ में दो पुलिसकर्मियों की भी मौत हुई थी, किंतु अपने जवानों की शहादत को अपमानित करते हुए कांग्रेस के कुछ नेता मुठभेड़ के फौरन बाद बाटला हाउस पहुंचे थे, जहां मुस्लिम वोट बैंक की खातिरदारी में मुलायम सिंह यादव सरीखे नेता पहले से ही विराजमान थे। सत्तासीन कांग्रेस ने अपने नेताओं को आतंकवादियों का साथ देने वाले कट्टरपंथी तत्वों से दूरी बनाने का निर्देश देने के बजाए सुरक्षाकर्मियों की भूमिका पर सवाल खड़ा किया। बाटला हाउस मुठभेड़ और कई अन्य राज्यों की जांच में आतंकवाद और उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के बीच गहरा संबंध पाया गया, किंतु वोट बैंक की राजनीति के कारण आजमगढ़ सेक्युलरिस्टों का नया तीर्थ बन गया। बाटला हाउस मुठभेड़ में मारे गए आतंकी और अन्यत्र आतंकी गतिविधियों में लिप्त पाए जाने के कारण आजमगढ़ के जिन युवाओं को गिरफ्तार किया गया, उनके घरों पर मातमपुर्सी के लिए सेक्युलरिस्टों का तांता लग गया। सुरक्षा जवानों का मनोबल तोड़ने वाले सेक्युलरिस्ट क्या कभी आतंकवाद के खिलाफ लामबंद हो सकेंगे? कई वषरें से पूरे देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र है, किंतु संप्रग सरकार सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम (न्याय एवं क्षतिपूर्ति) विधेयक 2011 का मसौदा तैयार किए बैठी है। इस विधेयक को लाने का उद्देश्य भी मुस्लिम समाज के कट्टरपंथी वर्ग को खुश कर अपना वोटबैंक बढ़ाना ही है। इस मसौदे में पहले से ही यह मान लिया गया है कि सांप्रदायिक तनाव के लिए केवल बहुसंख्यक जिम्मेदार हैं और अल्पसंख्यकों का इसमें कोई दोष नहीं है। सांप्रदायिक तनाव या संघर्ष की स्थिति में केवल बहुसंख्यक समाज को ही दंडित करने का प्रावधान रखा गया है। वोटबैंक की राजनीति के कारण क्या यह सांप्रदायिक सौहार्द्र को बिगाड़ने का प्रयास नहीं है? वस्तुत: सामाजिक टकराव से ही कांग्रेस अपना राजनीतिक उल्लू साधती आई है। किसी भी तरह का आतंकवाद भारतीय संप्रभुता और अखंडता को प्रत्यक्ष चुनौती है। ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में घुसकर मार गिराना पाकिस्तान की संप्रभुता का उल्लंघन भले हो, किंतु इससे अमेरिका की दृढ़ इच्छाशक्ति भी रेखांकित हुई है। सारा अमेरिकी समाज इस मामले में बराक ओबामा के साथ खड़ा था। वोटबैंक की वैचारिक दासता में बंधे भारतीय सत्ता अधिष्ठान से ऐसी अपेक्षा व्यर्थ है। (लेखक भाजपा के राज्यसभा सदस्य हैं)
स्त्रोत :
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=2&edition=2011-07-19&pageno=8
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