अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में रहने वाले आदिवासियों के संरक्षण के साथ-साथ उनके पारंपरिक ज्ञान और तौरतरीकों को सहेज कर रखना बहुत जरूरी है। इन द्वीप समूहों की जैव-विविधता दुनिया में सबसे अनूठी है। यहां सैकड़ों किस्म की जड़ी-बूटियां और औषधि गुण वाले पेड़-पौधे पाए जाते हैं। यहां के आदिवासियों ने इन जड़ी-बूटियों के मिश्रण से कई तरह की दवाएं विकसित की हंै और वे सैकड़ों वर्षो से विभिन्न रोगों के उपचार के लिए इन दवाओं का इस्तेमाल कर रहे हैं। आदिवासियों की इन पारंपरिक चिकित्सा विधियों की तरफ अब सरकार का भी ध्यान गया है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने इन अनोखी चिकित्सा विधियों के पेटेंट हासिल करने की योजना बनाई है। परिषद के क्षेत्रीय चिकित्सा अनुसंधान ने अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह के आदिवासियों के लिए एक सामुदायिक जैव विविधता रजिस्टर बनाने का काम शुरू किया है। इसमें पारंपरिक उपचार विधियों का ब्यौरा दर्ज किया जाएगा। रजिस्टर में यह रिकार्ड रखा जाएगा कि औषधि गुण वाली जड़ी-बूटियों के स्थानीय नाम क्या हैं। जड़ी-बूटियों के मिश्रण से दवाएं किस तरह तैयार की जाती हैं और कितने लोगों का इन विधियों से सफल इलाज किया गया। इनके अलावा रजिस्टर में पारंपरिक आदिवासी चिकित्सक या ओझा के फोटो के साथ उसका व्यक्तिगत विवरण भी दिया जाएगा। भारतीय वैज्ञानिकों के एक दल ने हाल ही में कार निकोबार द्वीप के 11 गांवों का दौरा किया था, जहां आदिम निकोबारी आदिवासी रहते हैं। वैज्ञानिकों ने यहां आदिवासियों द्वारा प्रयोग में लाई जा रही 124 जड़ी-बूटियों का ब्यौरा एकत्र किया। आदिवासी इनका इस्तेमाल 34 बीमारियों के इलाज के लिए करते हैं। वैज्ञानिकों ने 42 ऐसे लोगों अथवा ओझाओं के भी इंटरव्यू लिए, जो इन दवाओं से मरीजों का इलाज करते हैं। वैज्ञानिक विभिन्न बीमारियों के इलाज में प्रयुक्त किए जाने वाले पौधों और उनके हिस्सों को संग्रहीत भी कर रहे हैं। उन्होंने इन पौधों पर अनुसंधान करने के लिए इनका बगीचा भी लगाया है। आदिवासियों की चिकित्सा विधियों का रिकार्ड तैयार करना एक बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य है। इसके लिए सभी आदिवासी समूहों तक पहुंचना जरूरी होगा। सरकार इस प्रोजेक्ट पर 38 लाख रुपये खर्च करेगी। आदिवासियों द्वारा तैयार की जाने वाली ज्यादातर दवाएं पेड़-पौधों के विभिन्न हिस्सों का मिश्रण होती हैं। हर बीमारी के लिए दवा अलग होती है और इनके प्रयोग की अवधि भी हर बीमारी में अलग-अलग होती है। वैज्ञानिकों को हर चीज को बारीकी से नोट करना पड़ेगा और खुद अनुसंधान करके यह बताना पड़ेगा कि ये पारंपरिक औषधियां कारगर क्यों होती है। पूरा विवरण तैयार होने और वैज्ञानिक पुष्टि के बाद ही चिकित्सा अनुसंधान परिषद इन दवाओं के पेटेंट के लिए आवेदन करेगी। पेटेंट पारंपरिक आदिवासी ओझाओं के नाम से लिए जाएंगे। आदिवासी ओझाओं के ज्ञान को उन्हीं के नाम से रजिस्टर कराया जाना आवश्यक है ताकि कोई भी व्यक्ति उनके ज्ञान का दुरुपयोग नहीं कर सके। यदि इस ज्ञान के आधार पर कोई प्रोडक्ट तैयार किया जाता है और इसके लिए कोई बौद्धिक संपदा अधिकार प्राप्त किया जाता है तो पारंपरिक आदिवासी चिकित्सकों या ओझाओं के नाम आविष्कारक के रूप में दर्ज करने होंगे और प्रोडक्ट से होने वाले लाभ उनके साथ भी बांटने होंगे। अंडमान और निकोबार द्वीप समूह का करीब 86 फीसदी हिस्सा संरक्षित घने जंगलों का है। इन द्वीपों में औषधि मूल्य के करीब 170 पेड़-पौधों की पहचान की गई है। द्वीपों में रहने वाली आदिवासियों ने न सिर्फ इन जड़ी-बूटियों को खोजा, बल्कि उनके चिकित्सीय उपयोग का भी पता लगाया। यदि आज अंडमान-निकोबार की जैव-वनस्पति संपदा सही सलामत है तो इसका बहुत कुछ श्रेय आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान और उनके द्वारा किए गए संरक्षण को ही जाता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)http://in.jagran.yahoo.com/ epaper/index.php?location=49& edition=2011-07-30&pageno=8
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