स्विट्ज़रलैण्ड भौतिकी प्रयोगशाला में भगवान शिव
कुछ माह पहले ही 'ईश्वरकण' की खोज के प्रयोग से हलचल पैदा करने वाली 'नाभिकीय अनुसंधान यूरोपीय संगठन' (CERN) का नाम तो विज्ञान प्रेमियों को याद होगा। ११३ देशों के ६०८ अनुसंधान संस्थानों के ७९३१ वैज्ञानिक तथा इंजीनियर इस संस्थान में अनुसंधानरत हैं। यह फ़्रान्स और स्विट्ज़रलैण्डदोनों देशों की भूमि में १०० मीटर गहरे में स्थित है। यह अनेक अर्थों में विश्व की विशालतम भौतिकी की प्रयोगशाला है।
१९८४ में यहां के दो वैज्ञानिकों को बोसान कणों की खोज के लिये नोबेल से सम्मानित किया गया। १९९२ में ज़ार्ज शर्पैक को कणसंसूचक के आविष्कार के लिये नोबेल से सम्मानित किया गया।१९९५ में यहां 'प्रति हाइड्रोजन ' अणुओं का निर्माण किया गया। वैसे तो इसकी उपलब्धियों की सूची लम्बी है, किन्तु इस समय यह फ़िर गरम चर्चा में है क्योंकि इसके एक प्रयोग से ऐसा निष्कर्ष- सा निकलता दिखता है कि एक अवपरमाणुक कण ने प्रकाश के वेग को हरा दिया है।
यह तो आइन्स्टाइन को अर्थात एक दृष्टि से आधुनिक भौतिकी के एक आधार स्तंभ को ध्वस्त कर सकने वाली खोज है। अभी इस क्रान्तिकारी खोज की जाँच पड़ताल चल रही है। सरलरूप से कहें तब इस प्रयोगशाला में मुल कणों को तेज से तेज दौड़ाया जाता है, अर्थात यह प्रयोगशाला 'कण त्वरक' है जो मूलकणों को प्रकाश वेग के निकटतम त्वरित वेग (particle accelerator) प्रदान करने की क्षमता रखती है, और फ़िर यह उनमें, यदि मैं विनोद में कहूं तब, मुर्गों के समान टक्कर कराती है (अतएव इसका नाम विशाल हेड्रान संघट्टक भी है ) और यह इस तरह नए कणों का निर्माण कर सकती है, और प्रयोगशाला में ही यह ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की सूक्ष्मरूप में रचना कर सकती है। न केवल यह आकार और प्रकार में विशालतम है वरन कार्य में सूक्ष्मतम कणों के व्यवहार की खोज करती है, जिनके अध्ययन से इस विराट ब्रह्माण्ड की संरचना समझने के लिये भी मदद मिलती है।
संभवत: आपको विश्वास न हो कि इस विशालतम भौतिकी प्रयोगशाला केन्द्र में शिव जी कहना चाहिये कि नटराज की एक विशाल प्रतिमा स्थापित है ! जिस तरह शिव जी का ताण्डव नृत्य सृष्टि के विनाश और पुन: निर्माण का द्योतक है उसी तरह इस ब्रह्माण्ड में सूक्ष्मतम कण नृत्य करते हैं, एक दूसरे को नष्ट करते हैं, और नए कणों की रचना करते हैं। अर्थात शिव जी का ताण्डव नृत्य ब्रह्माण्ड में हो रहे मूल कणों के 'नृत्य' का प्रतीक है।
सन २००४ में भारत ने यह मूर्ति इस विशाल हेड्रान संघट्टक को भेंट की थी। यह आश्चर्यजनक घटना अचानक ही नहीं हो गई है। इसके संस्थापकों में नोबेल सम्मानित, क्वाण्टम भौतिकी के सहसंस्थापक वैर्नर हाइज़ैनबर्ग भी थे; वे और क्वाण्टम भौतिकी के विकास करने वाले अनेक वैज्ञानिकों ने देखा कि क्वाण्टम भौतिकी की प्रक्रियाएं जो प्रचलित विज्ञान के सिद्धान्तों से न केवल अबूझ रहती हैं वरन वे उनका विरोध- सा करती प्रतीत होती हैं, वेदान्त का ज्ञान समझने के बाद समझ में आती हैं । तब इसमें क्या आश्चर्य कि क्वाण्टम भौतिकी के विकास करने वाले वैज्ञानिक वेदान्त को श्रद्धा से देखते हैं।
यह यदि धक्का देने वाली घटना नहीं तो आश्चर्यजनक तो अवश्य है कि विज्ञान अर्थात तर्कसंगत तथा बुद्धिसंगत ज्ञान का आधुनिकतम अनुसंधान करने वाली संस्था 'नाभिकीय अनुसंधान यूरोपीय संगठन' (CERN) में हिन्दुओं का एक ईश्वर कैसे स्थापित हो गया। नास्तिक इस घटना के कारण उबल तो सकते हैं, क्योंकि वे तो धर्म के नाम से ही नाक भौं सिकोड़ने लगते हैं, धार्मिकों को अंधविश्वासी मानते हैं, और कहते हैं कि इन धर्मॊं ने तो विज्ञान की, इसलिये विचार स्वातंत्र्य वाले विश्व की प्रगति में अवरोध ही पैदा किये हैं। हो सकता है कि उनकी यह धारणा पाश्चात्य धर्मों के संबन्ध में सही हो, किन्तु क्वाण्टम भौतिकी के प्रवेश के साथ एक और नोबेल सम्मानित वैज्ञानिक श्रोयडिन्जर ने हिन्दू वेदान्त के ज्ञान का अध्ययन कर लाभ उठाय था।
१९७५ में फ़्रिट्याफ़ काप्रा, एक प्रसिद्ध अमैरिकी भौतिकी वैज्ञानिक ने 'द डाओ आफ़ फ़िज़िक्स' नाम की एक अनोखी पुस्तक लिखी, यह उनकी पाँचवी 'अंतर्राष्ट्रीय सर्वाधिक प्रिय पुस्तक सिद्ध हुई, इसके २३ भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं। इस पुस्तक में काप्रा ने शिव के ताण्डव और अवपरमाण्विक कणों के ऊर्जा नृत्य का संबन्ध दर्शाया है; "यह ऊर्जा नृत्य विनाश तथा रचना की स्पंदमान लयात्मक अनंत प्रक्रिया है। अतएव आधुनिक भौतिकी वैज्ञानिक के लिये हिन्दू पुराणों में वर्णित शिव का नृत्य समस्त ब्रह्माण्ड में अवपरमाण्विक कणॊं का नृत्य है, जो कि समस्त अस्तित्व तथा प्राकृतिक घटनाओं का आधार है।" वे आगे कहते हैं, "आधुनिक भौतिकी में पदार्थ निष्क्रिय और जड़ नहीं है वरन सतत नृत्य में रत है।" इस तरह आधुनिक भौतिकी तथा हिन्दू ज्ञान दोनों ही दृढ़ हैं कि ब्रह्माण्ड को गत्यात्मक ही समझना चाहिये, इसकी निर्मिति स्थैतिक नहीं है।
काप्रा लिखते हैं कि पूर्वीय रहस्यवादी ब्रह्माण्ड को अपृथक्करणीय जाल मानते हैं जिसमें सभी संबन्ध गत्यात्मक हैं स्थैतिक नहीं। इस पुस्तक का सर्वाधिक स्तंभित करने वाला कथन है कि पूर्वीय रहस्यवादी अवधारणा सत्य है। वे कहते हैं कि आधुनिक भौतिकी मानती है कि ब्रह्माण्ड का जाल जीवन्त या चेतन है।
इस तरह हम देखते हैं कि आधुनिक वैज्ञानिक पुरातन औपनिषिदिक ऋषियों के समान ही सोच रहे हैं। अतएव विशालतम प्रयोगशाला में वैज्ञानिकों द्वारा स्थापित शिव की मूर्ति कोई प्रहसन या नाटक नहीं है वरन एक श्रद्धामय कार्य है जो सभी वैज्ञानिकों को प्रेरणा देता है। यह हम भारतीयों के लिये प्रेरणाप्रद है तथा गर्व की बात है।
विज्ञान अब सहमत है कि भारतीय उपमहाद्वीप के ऋषियों ने गहरे सत्य - उच्च आयामों तथा सूक्ष्मसत्यों - का दर्शन कर लिया था। इऩ्हीं सूक्ष्म सत्यों को नोबेल सम्मानित एर्विन श्रोयडिन्जर (Erwin Schrodinger) ने समझ लिया था। इनका 'श्रोयडिन्जर समीकरण' (Schrodinger Equation) बीसवीं शती की एक महानतम उपलब्धि माना जाता है। उनकी उपनिषदों पर गहरी श्रद्धा थी यह तो उनकी पुस्तक 'ह्वाट इज़ लाइफ़' में भी देखा जा सकता है; और डी एन ए की क्रान्तिकारी खोज करने वाले फ़्रान्सिस क्रिक ने भी अपनी अंतर्दृष्टि के लिये इस पुस्तक को श्रेय दिया है। श्रोयडिन्जर भारतीय शास्त्रों में उपलब्ध विवेक के रत्नकोश के विषय में इतने आश्वस्त थे कि उऩ्होंने उद्घोषणा की थी - “ सम्पूर्ण विश्व में ऐसा कोई भी दृष्टि नहीं है जिसके अनुसार चेतन में बहुत्व हो, (अर्थात केवल एकत्व ही है); यह बहुत्व तो हम व्यक्तियों की बहुलता के कारण रचते हैं, किन्तु यह भ्रमपूर्ण रचना है। इसका जो एकमात्र हल है, यदि वह कहीं है, वह पुरातन उपनिषदों में मिलता है।"
ऐसा एकत्व मानने वाले श्रोयडिन्जर अकेले नहीं थे, डेविड बोम, यूजेन विग्नर, ओपैनहाइमर, डेविड जोसैफ़सन, आर्किबाल्ड ह्वीलर, चार्ल्स टाउन्स, जैक सर्फ़ैत्ती, जान हैजैलिन, जन बैल्स आदि अनेक वैज्ञानिकों ने औपनिषिदिक ज्ञान के ब्रह्माण्डीय अद्वितीय़ चेतना के सागर में गोते लगाए थे, और संतुष्ट हुए थे। 'ब्लैक होल' (कृष्ण विवर) तथा 'वर्म होल' (दीमक विवर) के सर्जक जान आर्किबाल्ड ह्वीलर पूर्व के ज्ञान से इतने अभिभूत थे कि उऩ्होंने घोषणा की – ‘ऐसा लगता है कि पूर्व के ऋषियों को सब ज्ञात था, और हम यदि केवल उनके 'ज्ञान' का अपनी भाषा में अनुवाद कर सकें, तब हमें अपने समस्त प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे।‘
सर्वाधिक साहसिक कथन तो राबर्ट जुलियस ओपैनहाइमर का मिलता है, “हमें आधुनिक भौतिकी में जो ज्ञान प्राप्त होगा, वह हिन्दू ज्ञान का परिष्कृत रूप होगा, उसका दृष्टान्त होगा, तथा वह हमारा उत्साहवर्धन करेगा।"
हो सकता है कि उपरोक्त तथ्य किसी संशयात्मा को हतबुद्धि कर दे, किन्तु सत्य तो यह है कि विज्ञान कब से पूर्वी ज्ञान के समक्ष घुटने टेक चुका है।
नास्तिको, सावधान! विज्ञान तो हिन्दूधर्म के सर्व व्याप्त दिव्यत्व की तरफ़ लौट रहा है।
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१९८४ में यहां के दो वैज्ञानिकों को बोसान कणों की खोज के लिये नोबेल से सम्मानित किया गया। १९९२ में ज़ार्ज शर्पैक को कणसंसूचक के आविष्कार के लिये नोबेल से सम्मानित किया गया।१९९५ में यहां 'प्रति हाइड्रोजन ' अणुओं का निर्माण किया गया। वैसे तो इसकी उपलब्धियों की सूची लम्बी है, किन्तु इस समय यह फ़िर गरम चर्चा में है क्योंकि इसके एक प्रयोग से ऐसा निष्कर्ष- सा निकलता दिखता है कि एक अवपरमाणुक कण ने प्रकाश के वेग को हरा दिया है।
यह तो आइन्स्टाइन को अर्थात एक दृष्टि से आधुनिक भौतिकी के एक आधार स्तंभ को ध्वस्त कर सकने वाली खोज है। अभी इस क्रान्तिकारी खोज की जाँच पड़ताल चल रही है। सरलरूप से कहें तब इस प्रयोगशाला में मुल कणों को तेज से तेज दौड़ाया जाता है, अर्थात यह प्रयोगशाला 'कण त्वरक' है जो मूलकणों को प्रकाश वेग के निकटतम त्वरित वेग (particle accelerator) प्रदान करने की क्षमता रखती है, और फ़िर यह उनमें, यदि मैं विनोद में कहूं तब, मुर्गों के समान टक्कर कराती है (अतएव इसका नाम विशाल हेड्रान संघट्टक भी है ) और यह इस तरह नए कणों का निर्माण कर सकती है, और प्रयोगशाला में ही यह ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की सूक्ष्मरूप में रचना कर सकती है। न केवल यह आकार और प्रकार में विशालतम है वरन कार्य में सूक्ष्मतम कणों के व्यवहार की खोज करती है, जिनके अध्ययन से इस विराट ब्रह्माण्ड की संरचना समझने के लिये भी मदद मिलती है।
संभवत: आपको विश्वास न हो कि इस विशालतम भौतिकी प्रयोगशाला केन्द्र में शिव जी कहना चाहिये कि नटराज की एक विशाल प्रतिमा स्थापित है ! जिस तरह शिव जी का ताण्डव नृत्य सृष्टि के विनाश और पुन: निर्माण का द्योतक है उसी तरह इस ब्रह्माण्ड में सूक्ष्मतम कण नृत्य करते हैं, एक दूसरे को नष्ट करते हैं, और नए कणों की रचना करते हैं। अर्थात शिव जी का ताण्डव नृत्य ब्रह्माण्ड में हो रहे मूल कणों के 'नृत्य' का प्रतीक है।
सन २००४ में भारत ने यह मूर्ति इस विशाल हेड्रान संघट्टक को भेंट की थी। यह आश्चर्यजनक घटना अचानक ही नहीं हो गई है। इसके संस्थापकों में नोबेल सम्मानित, क्वाण्टम भौतिकी के सहसंस्थापक वैर्नर हाइज़ैनबर्ग भी थे; वे और क्वाण्टम भौतिकी के विकास करने वाले अनेक वैज्ञानिकों ने देखा कि क्वाण्टम भौतिकी की प्रक्रियाएं जो प्रचलित विज्ञान के सिद्धान्तों से न केवल अबूझ रहती हैं वरन वे उनका विरोध- सा करती प्रतीत होती हैं, वेदान्त का ज्ञान समझने के बाद समझ में आती हैं । तब इसमें क्या आश्चर्य कि क्वाण्टम भौतिकी के विकास करने वाले वैज्ञानिक वेदान्त को श्रद्धा से देखते हैं।
यह यदि धक्का देने वाली घटना नहीं तो आश्चर्यजनक तो अवश्य है कि विज्ञान अर्थात तर्कसंगत तथा बुद्धिसंगत ज्ञान का आधुनिकतम अनुसंधान करने वाली संस्था 'नाभिकीय अनुसंधान यूरोपीय संगठन' (CERN) में हिन्दुओं का एक ईश्वर कैसे स्थापित हो गया। नास्तिक इस घटना के कारण उबल तो सकते हैं, क्योंकि वे तो धर्म के नाम से ही नाक भौं सिकोड़ने लगते हैं, धार्मिकों को अंधविश्वासी मानते हैं, और कहते हैं कि इन धर्मॊं ने तो विज्ञान की, इसलिये विचार स्वातंत्र्य वाले विश्व की प्रगति में अवरोध ही पैदा किये हैं। हो सकता है कि उनकी यह धारणा पाश्चात्य धर्मों के संबन्ध में सही हो, किन्तु क्वाण्टम भौतिकी के प्रवेश के साथ एक और नोबेल सम्मानित वैज्ञानिक श्रोयडिन्जर ने हिन्दू वेदान्त के ज्ञान का अध्ययन कर लाभ उठाय था।
१९७५ में फ़्रिट्याफ़ काप्रा, एक प्रसिद्ध अमैरिकी भौतिकी वैज्ञानिक ने 'द डाओ आफ़ फ़िज़िक्स' नाम की एक अनोखी पुस्तक लिखी, यह उनकी पाँचवी 'अंतर्राष्ट्रीय सर्वाधिक प्रिय पुस्तक सिद्ध हुई, इसके २३ भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं। इस पुस्तक में काप्रा ने शिव के ताण्डव और अवपरमाण्विक कणों के ऊर्जा नृत्य का संबन्ध दर्शाया है; "यह ऊर्जा नृत्य विनाश तथा रचना की स्पंदमान लयात्मक अनंत प्रक्रिया है। अतएव आधुनिक भौतिकी वैज्ञानिक के लिये हिन्दू पुराणों में वर्णित शिव का नृत्य समस्त ब्रह्माण्ड में अवपरमाण्विक कणॊं का नृत्य है, जो कि समस्त अस्तित्व तथा प्राकृतिक घटनाओं का आधार है।" वे आगे कहते हैं, "आधुनिक भौतिकी में पदार्थ निष्क्रिय और जड़ नहीं है वरन सतत नृत्य में रत है।" इस तरह आधुनिक भौतिकी तथा हिन्दू ज्ञान दोनों ही दृढ़ हैं कि ब्रह्माण्ड को गत्यात्मक ही समझना चाहिये, इसकी निर्मिति स्थैतिक नहीं है।
काप्रा लिखते हैं कि पूर्वीय रहस्यवादी ब्रह्माण्ड को अपृथक्करणीय जाल मानते हैं जिसमें सभी संबन्ध गत्यात्मक हैं स्थैतिक नहीं। इस पुस्तक का सर्वाधिक स्तंभित करने वाला कथन है कि पूर्वीय रहस्यवादी अवधारणा सत्य है। वे कहते हैं कि आधुनिक भौतिकी मानती है कि ब्रह्माण्ड का जाल जीवन्त या चेतन है।
इस तरह हम देखते हैं कि आधुनिक वैज्ञानिक पुरातन औपनिषिदिक ऋषियों के समान ही सोच रहे हैं। अतएव विशालतम प्रयोगशाला में वैज्ञानिकों द्वारा स्थापित शिव की मूर्ति कोई प्रहसन या नाटक नहीं है वरन एक श्रद्धामय कार्य है जो सभी वैज्ञानिकों को प्रेरणा देता है। यह हम भारतीयों के लिये प्रेरणाप्रद है तथा गर्व की बात है।
विज्ञान अब सहमत है कि भारतीय उपमहाद्वीप के ऋषियों ने गहरे सत्य - उच्च आयामों तथा सूक्ष्मसत्यों - का दर्शन कर लिया था। इऩ्हीं सूक्ष्म सत्यों को नोबेल सम्मानित एर्विन श्रोयडिन्जर (Erwin Schrodinger) ने समझ लिया था। इनका 'श्रोयडिन्जर समीकरण' (Schrodinger Equation) बीसवीं शती की एक महानतम उपलब्धि माना जाता है। उनकी उपनिषदों पर गहरी श्रद्धा थी यह तो उनकी पुस्तक 'ह्वाट इज़ लाइफ़' में भी देखा जा सकता है; और डी एन ए की क्रान्तिकारी खोज करने वाले फ़्रान्सिस क्रिक ने भी अपनी अंतर्दृष्टि के लिये इस पुस्तक को श्रेय दिया है। श्रोयडिन्जर भारतीय शास्त्रों में उपलब्ध विवेक के रत्नकोश के विषय में इतने आश्वस्त थे कि उऩ्होंने उद्घोषणा की थी - “ सम्पूर्ण विश्व में ऐसा कोई भी दृष्टि नहीं है जिसके अनुसार चेतन में बहुत्व हो, (अर्थात केवल एकत्व ही है); यह बहुत्व तो हम व्यक्तियों की बहुलता के कारण रचते हैं, किन्तु यह भ्रमपूर्ण रचना है। इसका जो एकमात्र हल है, यदि वह कहीं है, वह पुरातन उपनिषदों में मिलता है।"
ऐसा एकत्व मानने वाले श्रोयडिन्जर अकेले नहीं थे, डेविड बोम, यूजेन विग्नर, ओपैनहाइमर, डेविड जोसैफ़सन, आर्किबाल्ड ह्वीलर, चार्ल्स टाउन्स, जैक सर्फ़ैत्ती, जान हैजैलिन, जन बैल्स आदि अनेक वैज्ञानिकों ने औपनिषिदिक ज्ञान के ब्रह्माण्डीय अद्वितीय़ चेतना के सागर में गोते लगाए थे, और संतुष्ट हुए थे। 'ब्लैक होल' (कृष्ण विवर) तथा 'वर्म होल' (दीमक विवर) के सर्जक जान आर्किबाल्ड ह्वीलर पूर्व के ज्ञान से इतने अभिभूत थे कि उऩ्होंने घोषणा की – ‘ऐसा लगता है कि पूर्व के ऋषियों को सब ज्ञात था, और हम यदि केवल उनके 'ज्ञान' का अपनी भाषा में अनुवाद कर सकें, तब हमें अपने समस्त प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे।‘
सर्वाधिक साहसिक कथन तो राबर्ट जुलियस ओपैनहाइमर का मिलता है, “हमें आधुनिक भौतिकी में जो ज्ञान प्राप्त होगा, वह हिन्दू ज्ञान का परिष्कृत रूप होगा, उसका दृष्टान्त होगा, तथा वह हमारा उत्साहवर्धन करेगा।"
हो सकता है कि उपरोक्त तथ्य किसी संशयात्मा को हतबुद्धि कर दे, किन्तु सत्य तो यह है कि विज्ञान कब से पूर्वी ज्ञान के समक्ष घुटने टेक चुका है।
नास्तिको, सावधान! विज्ञान तो हिन्दूधर्म के सर्व व्याप्त दिव्यत्व की तरफ़ लौट रहा है।
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- सलिल ज्ञवाली एवं विश्व मोहन तिवारी, Air Vice Marshal (Retd), Delhi
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