राष्ट्रवादी कॉंग्रेस (राकॉं) के क्रोध का या नाराजी का नाटक समाप्त हुआ, यह अच्छा हुआ. हम कहॉं खड़े है और हमारा प्रभाव कितना है, यह राकॉं के सर्वोसर्वा श्री शरद पवार के निश्चित ही ध्यान में आ चुका होगा. श्री पवार अत्यंत धूर्त एवं मंजे हुए राजनेता है. वे अविचार में, अपनी और अपनी पार्टी की विद्यमान प्रतिष्ठा को धक्का लगेगा, ऐसा कुछ नहीं करेंगे. कॉंग्रेस ने भी उन्हें दिखा दिया है कि, वह उनसे नहीं डरती.
क्रोध स्वाभाविक
इस नाराजी नाट्य का आरंभ हुआ, केंद्रीय मंत्रिमंडल में के स्थान से. अब तक, मतलब राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी का पर्चा भरने तक, श्री प्रणव मुखर्जी मंत्रिमंडल में द्वितीय स्थान पर थे. पहला स्थान प्रधानमंत्री का यह तो स्पष्ट ही है. उनकी बगल में, दूसरे क्रमांक के स्थान पर प्रणव मुखर्जी विराजमान रहते थे. उन्होंने त्यागपत्र देने के बाद वह स्थान रिक्त हुआ. स्वाभाविक रूप से वह स्थान श्री शरद पवार को मिलना चाहिए था. कारण, मंत्रिमंडल में उनका स्थान तीसरे क्रमांक पर था. श्री पवार ने वैसी अपेक्षा की होगी, तो उसमें अनुचित कुछ भी नहीं. लेकिन कॉंग्रेस ने तय किया कि, श्री पवार की तरक्की नहीं करना. इसलिए कॉंग्रेस ने श्री पवार के बदले उनसे नीचे के क्रमांक पर के श्री ऍण्टोनी को दूसरे क्रमांक पर लाया. श्री पवार का इससे क्रोधित होना स्वाभाविक मानना चाहिए.
बात मन की और ओठों पर की
मन में का यह क्रोध ओठों पर लाना संभव नहीं था. वह कूटनीति के अनुरूप नहीं होता. इसलिए, सत्तारूढ संयुक्त प्रगतिशील मोर्चे की घटक पार्टी होते हुए भी, हमारा मत विचार में नहीं लिया जाता, कॉंग्रेस घटक पार्टियों का ध्यान नहीं रखती, गठबंधन की सरकार होते हुए भी, मुख्य कॉंग्रेस पार्टी और गठबंधन की अन्य घटक पार्टियों के बीच समन्वय नहीं है, ऐसे कारण बताए गए. यह कारण झूठ नहीं हैं. लेकिन इसका खयाल अब तीन-साडेतीन वर्ष बाद क्यों आया? श्री प्रणव मुखर्जी द्वितीय स्थान पर और श्री शरद पवार तृतीय स्थान पर थे, क्या तब गठबंधन की मुख्य कॉंग्रेस पार्टी और अन्य घटक पार्टियों के बीच समन्वय था? राज्यपालों की नियुक्ति हो या राज्य सभा में नामनियुक्त करने की बात हो, कॉंग्रेस ने कब गठबंधन की पार्टियों का मत विचार में लिया था? संप्रमो में की कॉंग्रेस के लोकसभा में २०८ सांसद हैं. राकॉं के केवल ९. राकॉं की तुलना में तृणमूल कॉंग्रेस, और द्रमुक के सांसदों की संख्या अधिक है. तृणमूल के १९ हैं, तो द्रमुक के १८. इसके अलावा, बाहर से समर्थन देने वाले समाजवादी पार्टी और बसपा के सांसदों की संख्या भी क्रमश: २२ और २१ है. कॉंग्रेस, ९ सांसदों वाली राकॉं की चिंता क्यों करें?
महाराष्ट्र : राकॉं की दुखती रग
केंन्द्र में राकॉं के बिना भी संप्रमो सत्ता में बना रह सकता है लेकिन, महाराष्ट्र में वैसी स्थिति नहीं. २८८ सदस्यों की विधानसभा में कॉंग्रेस के केवल ८२ विधायक है; तो राकॉं के ६२ (इस संख्या में कुछ अंतर हो सकता है) अर्थ स्पष्ट है कि,राकॉं के समर्थन के बिना कॉंग्रेस महाराष्ट्र में सत्ता में रह ही नहीं सकती. और यह कॉंग्रेस को भी मान्य है. इसलिए ही मुख्यमंत्री कॉंग्रेस का तो उपमुख्यमंत्री राकॉं का होता है. सन् १९९९ से यह चल रहा है. लेकिन महाराष्ट्र में की राकॉं हाल ही में एक नई बीमारी से त्रस्त है. वह केवल शरद पवार की नाराजी की तरह औपचारिक मानापमान की नहीं. वह अधिक गंभीर है और उसके परिणाम गंभीर भी हो सकते है. वह बीमारी यह है कि, राकॉं के जो मंत्री मंत्रिमंडल में है, उनमें से दो बड़े मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप है. उनमें से एक है छगन भुजबळ, तो दूसरे है सुनील तटकरे. भुजबळ सार्वजनिक निर्माण विभाग के मंत्री है, तो तटकरे के पास जलसंपदा विभाग है. यह दोनों विभाग भ्रष्टाचार के लिए अत्यंत उपयुक्त है,यह सर्वज्ञात है.
कॉंग्रेसकृत उपेक्षा
भाजपा के क्रियावान् कार्यकर्ता किरीट सोमय्या ने इन दो मंत्रियों ने, चतुराई से किया भ्रष्टाचार, पत्रपरिषद लेकर सार्वजनिक किया है. सोमय्या केवल आरोप करके ही नहीं रूके. उन्होंने सीधे इस भ्रष्टाचार के सबूत ही पत्रपरिषद में प्रस्तुत किए. भुजबळ ने दिल्ली के महाराष्ट्र सदन इस सरकारी इमारत के निर्माणकार्य में एक घोटाला किया. (यह एकमात्र घोटाला नहीं है.) इस निर्माण कार्य का अनुमानित खर्च ५२ करोड़ रुपये था. वह १५२ करोड़ तक बढ़ाया गया. यह बढ़े हुए सौ करोड़ भुजबळ के पास गए, ऐसा सोमय्या का आरोप है. कारण इस काम का ठेका जिस कंपनी को दिया गया,वह एक बेनामी कंपनी है; और उस बेनामी कंपनी ने जिन छोटी कंपनीयों से यह काम करा लिया, उन कंपनीयों के मालिक भुजबळ के परिवारजन है. भुजबळ पर का आरोपित भ्रष्टाचार सौ करोड़ का है, तो तटकरे का आरोपित घोटाला हजार करोड़ के पार जाएगा. तटकरे भी चतुराई में कम नहीं. उन्होंने दर्जनभर बोगस कंपनियॉं बनाई और बांधों में पानी रोकने की ओर ध्यान देने के बदले इन कंपनियों के माध्यम से वह पैसा अपने पास खींचा, ऐसा आरोप है. यह आरोप विधानसभा में भी लगाया गया है. आखिर सरकार को बताना पड़ा कि, इन आरोपों की जॉंच आर्थिक अपराध अन्वेषण विभाग द्वारा कराई जाएगी. किरीट सोमय्या ने और भी कमाल की. केंद्रीय कंपनी व्यवहार मंत्री वीरप्पा मोईली, और उस विभाग के सनदी अधिकारियों से भेट कर, उन्हें सब सबूत दिए. बताया जाता है कि, इन अधिकारियों ने जॉंच के आदेश भी दिए हैं. भुजबळ और तटकरे दोनों मंत्री राकॉं के है. राकॉं का आरोप है कि, यह सब मामले उपस्थित किए जा रहे थे उस समय, मुख्यमंत्री या कॉंग्रेस इन मंत्रियों के समर्थन में खड़ी नहीं हुई. अब तो मुख्यमंत्री ने साफ यह दिया है कि, कानून अपना काम करेगा.
खोखले समाधान की आड में ...
कॉंग्रेस पर दबाव लाने के लिए श्री पवार त्यागपत्र देंगे, ऐसी बात चलाई गई. दूसरी बात - पृथ्वीराज चव्हाण को मुख्यमंत्री पद से हटाया जाएगा. क्योंकि वे अकार्यक्षम है. उनकी ही पार्टी के विधायकों ने चव्हाण पर आरोप लगाए हैं, ऐसा भी समाचार प्रकाशित हुआ था. लेकिन यह सब झूठ था, यह अब स्पष्ट हुआ है. तथापि, पवार का एक मुद्दा कॉंग्रेस ने मान्य किया; और समन्वय समिति स्थापन करने की घोषणा भी की. मुख्यमंत्री ने तो शीघ्र ही समन्वय समिति की बैठक आयोजित की जाएगी, ऐसा आश्वासन भी दिया. पवार को भी कुछ तसल्ली देने के लिए, प्रणव मुखर्जी के त्यागपत्र के कारण, जो मंत्रि-समूह (ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स - जीओएम) प्रभारहीन हो गए थे, उनका बँटवारा किया गया और पवार को दो मंत्रि-समूहों का अध्यक्ष पद सौपा गया. श्री मुखर्जी के पास करीब ग्यारह मंत्रि-समूहों का प्रभार था. उसमें से छह ऍण्टोनी,तीन चिदम्बरम्, तो केवल दो विभागों का प्रभार शरद पवार को दिया गया. वह विभाग है (१) कोयले की खदानों के कारण पर्यावरण को निर्माण हुआ संकट और (२) अकाल निवारण के उपायों की व्यवस्था. इस बँटवारे से और मुख्यमंत्री की घोषणा से राकॉं का समाधान हुआ ऐसा दिखता है. कहॉं त्यागपत्र देने और संप्रमो से बाहर निकलने की गंभीर धमकी और कहॉं ये समाधान का खोखला बहाना!
अधिष्ठान समाप्त
इस निमित्त, मेरे मन में प्रश्न निर्माण हुआ कि, राकॉं का भवितव्य क्या होगा? राकॉं का प्रारंभ तो बड़े धडाके से हुआ था. उस समय ऐसा लगा कि मानो उसने संपूर्ण भारतवर्ष अपने विचारों की परिधि में लिया है. कॉंग्रेस से बाहर निकलने के लिए उन्होंने आगे किया मुद्दा सही में गंभीर था. महत्त्व का था. संपूर्ण देश के राजनीतिक जीवन पर परिणाम करने की संभाव्यता का था. वह, सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा था. भारत की नागरिकता भी विलंब से स्वीकारने वाली व्यक्ति के हाथों में राष्ट्र का भवितव्य सौपना, खतरा है, यह भूमिका सही में महत्त्व की थी; और वही राकॉं ने अपनी आधारभूत भमिका निश्चित की थी. लेकिन कुछ ही समय में राकॉं यह भूमिका भूल गई. इस सैद्धांतिक भूमिका की अपेक्षा सत्ता का पद उसे महत्त्व का लगा और सोनिया गांधी जो कॉंग्रेस की अध्यक्ष ही नहीं सर्वाधिक बलिष्ठ नेता है, उनके ही साथ श्री पवार ने हाथ मिलाया. राकॉं के अलग रहने का अधिष्ठान ही समाप्त हुआ.
राकॉं का भवितव्य
पार्टी को वैचारिक या सैद्धांतिक अधिष्ठान नहीं रहा, तो भी पार्टियॉं चल सकती है, यह हम देख रहे हैं. लेकिन ऐसी पार्टियॉं व्यक्तिकेंद्रित होती हैं और उनका प्रभाव भी भौगोलिक दृष्टि से मर्यादित हो जाता है. मुलायम सिंह की पार्टी का नाम समाजवादी पार्टी है. लेकिन उस पार्टी का समाजवाद के सिद्धांतों से कोई लेना-देना नहीं. वह व्यक्तिकेंद्रि, परिवार-केंद्रि पार्टी बन गई है. उत्तर प्रदेश को ही अपना कार्यक्षेत्र निश्चित कर और यादव-मुस्लिम आधार मानकर वे आज वहॉं राज कर रहे है. मायावती की बसपा या लालू प्रसाद के राष्ट्रीय जनता दल का भी यही हाल है. जयललिता का उदाहरण ले या करुणानिधि का, तामिलनाडु ही उनका क्षेत्र है और बिजू जनता दल का ओडिशा. तेलगू देशम् ने तो अपने नाम से ही अपनी भौगोलिक मर्यादा अधोरेखित की है. शरद पवार की ‘राष्ट्रवादी’ कॉंग्रेस भी स्वयं को ‘महाराष्ट्रवादी’ कहे और उसे ही अपना कार्यक्षेत्र निश्चित करे. वैसे भी व्यवहारत: वह एक प्रादेशिक पार्टी ही बन चुकी है.
मुलायम सिंह या मायावती, पटनाईक या जयललिता या करुणानिधि ने कभी भी प्रधानमंत्री बनने की महत्त्वाकांक्षा मन में नहीं रखी. शरद पवार के मन में वह है. कम से कम थी यह तो वे भी मान्य करेंगे. आज उनकी क्या मन:स्थिति है, यह उनके अलावा अन्य कौन बता सकेगा? अत: राकॉं को अपना अस्तित्व बनाए रखना होगा, तो वह सीधे प्रादेशिक पार्टी की भूमिका स्वीकारे. उसे सैद्धांतिक अधिष्ठान पहले भी नहीं था, अब भी नहीं है और आगे भी रहने की संभावना नहीं. लेकिन एक आधार है. वह है मराठा समाज का. लेकिन इस समाज की शक्ति महाराष्ट्र तक ही मर्यादित है. यह सही है कि केवल मराठा समाज के भरोसे राज्य में सत्ता हासिल करना संभव नहीं. और मराठा समाज की शक्ति में कॉंग्रेस का भी हिस्सा है. इसिलिए श्री पवार ने रिपब्लिकन पार्टी मतलब बौद्ध समाज के साथ नजदिकियॉं बढ़ाई थी. लेकिन वह समूह भी अब उनसे दूर हो गया है. स्वाभाविक ही उन्हें अन्य समाज-समूह ढूंढने होंगे. सौभाग्य से महाराष्ट्र में, उत्तर प्रदेश या बिहार की तरह, जातियों के अलग-अलग सियासी समूह नहीं बने हैं. पश्चिम महाराष्ट्र में क्या स्थिति है, यह नहीं बताया जा सकता. लेकिन विदर्भ में तो जातियों के दबाव समूह नहीं है. सब पार्टियों में सब जातियों के नेता हैं. स्वाभाविक ही व्यक्तिकेंद्रित रहने वाली राकॉं का भवितव्य क्या होगा? श्री शरद पवार के बाद कौन? मुलायम सिंह और लालू प्रसाद ने इसका उत्तर खोज निकाला है. मुलायम सिंह के बाद उनके पुत्र अखिलेश मुख्यमंत्री बने है. लालू प्रसाद के बाद उनकी पत्नी राबडी देवी मुख्यमंत्री बनी थी. महाराष्ट्र में शिवसेना ने भी उसी प्रकार यह प्रश्न हल किया है. पंजाब में भी मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री, पिता और पुत्र की जोडी है. राकॉं का क्या? श्री शरद पवार के बाद कौन? सुप्रिया सुळे या अजित पवार या आर. आर. पाटील? श्री पवार को यह प्रश्न हल करना होंगा, और उसके उत्तर पर ही राकॉं का भवितव्य निर्भर होंगा.
- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)
babujivaidya@gmail.com
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