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अमरेन्द्र सुमन
भारी मात्रा में खनिज संपदाओं के पाए जाने व उसके दोहन के बाद भी इस राज्य की तकदीर और तस्वीर नहीं बदली जबकि बिहार से अलग हुए इस राज्य ने 12 वर्शों की आयु पूरी कर ली है। आज भी इस राज्य के अधिकतर लोगों की आजीविका खेती, दिहाड़ी मजदूरी व दूसरों की चाकरी पर टिकी रह गर्इ है। यहां आदिम जातिजनजाति, पिछड़ों व दलितों की एक बड़ी आबादी है। गैर सरकारी स्रोतों से प्राप्त जानकारी के अनुसार प्रति वर्ष तकरीबन लाखों लोग मौसमी रोजगार की खातिर पशिचम बंगाल, असम, अरुणाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीरर, मेघालय, सिकिक्म, मिजोरम व पंजाब-हरियाणा चले जाते हैं। एक फसली खेती पर आधारित इस राज्य की जीवन-व्यवस्था में वर्श भर पेट की क्षुब्धा मिटाने के लिये नागरिकों को दूसरे-तीसरे राज्यों की ओर पलायन के लिये मजबूर होना पड़ता है।
यह बड़ी बिडम्बना नहीं तो और क्या है कि जो राज्य खनिज संपदाओं, वनोपज सामग्रियों, बहुमूल्य लकडि़यों, औषधीय पेड़-पौधो, उत्तम किस्म के पत्थर खदानों व अन्य महत्वपूर्ण चीजों में प्रतिवर्श केन्द्र सरकार को सबसे अधिक राजस्व का लाभ पहुचाता हो, उस राज्य के नागरिकों को दो जून रोटी की खातिर दूसरे राज्यों में भटकना पड़ता है। इतना ही नहीं दूसरे राज्यो में काम की तलाश में जाने वाली महिला मजदूरों के साथ अमानवीय अत्याचार भी काफी बढ़-चढ़ कर होता है। झारखण्ड से बाहर काम की तलाश में जाने वाली सैकड़ों युवतियों जहा एक ओर शारीरिक शोषण होता है वहीं कर्इ-कर्इ लड़कियों का बाहर जाने के बाद उनका कोर्इ अता-पता तक नहीं होता। कुछ ऐसे गिरोह भी हैं जो इन मजदूरों को प्रलोभन देकर अन्य मुल्कों यथा बांग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान तथा खाड़ी के देशों में अमीरों के यहां गिरवी छोड़ आते हैं। प्रतिवर्श इस तरह सैकड़ों लड़कियों की गुमशुदगी के मामले संबंधित थाने में दर्ज किये जाते हैं लेकिन उसका कोर्इ खास परिणाम सामने नहीं आता। स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता एहतेशाम अहमद कहते हैं झारखण्ड की उप राजधानी दुमका सहित देवघर, गोडडा, पाकुड़, जामताड़ा व साहेबगंज में इस तरह के मामले समय-असमय दिख ही जाते हें जिनके सगे-संबंधी मौसमी रोजगार की मार झेलने की सिथति में घर से बाहर तो निकलते हैं लेकिन वे लौटकर वापस नहीं आते। इन सबके पीछे सबसे बड़ा कारण रोजगार की कमी है। जबकि इस राज्य में उधोग धंधों की कमी नहीं है।
संताल परगना प्रमण्डल की सिथति तो और भी बदतर हो चुकी है। चाहे उधोग-धंधों की बात हो, व्यवसाय-व्यापार की, शिक्षा-संस्कृति की, सामाजिक संरचना में उत्तरोत्तर विकास यात्रा की बात हो या फिर परिवार के भरण-पोषण की बात। राज्य में पूरी आबादी का एक तिहार्इ हिस्सा आज भी कृषि व वनोपज सामगि्रयों पर आधारित है। संताल परगना टिनेंसी एक्ट-(संशोधित) 1949 के विभिन्न धाराओं के अन्तर्गत वर्णित कानून में संताल परगना क्षेत्र के आदिवासियों की जमीन पूरी तरह अहस्तांसतरणीय है। संताल परगना रेगुलेशन एक्ट-1872 (3) के तहत ब्रिटीश हुकुमत के तत्कालीन वायसराय ने इस जंगल-तरार्इ क्षेत्र के लिये एक व्यवस्था कायम की थी जिसके अनुसार आदिवासी अपनी जमीन की बेच नहीं सकेगें। इस कानून को बनाने के पीछे उनकी मंशा चाहे जो भी रही हो, कहा तो यही जाता है कि समाज से बिल्कुल कटे इस वर्ग की सिथति इतनी दयनीय थी कि जो कुछ भी जमीन उनके हिस्से थी महाजन थोड़े-थोड़े पैसे देकर जमीन की गिरवी अपने नाम करवा लिया करते थे। जरुरत पड़ने पर समय-असमय आदिवासियो को दारु का पैसा देकर उन्हें जमीन से बेदखल कर दिया जाता था। इसी का परिणाम था कि सिदो कान्हु, चाद-भैरव के नेतृत्व में साहेबगंज के भोगनाडीह में 30 जून 1855 को ऐतिहासिक संताल हूल की नींव रखी गर्इ जो शोषण, उत्पीड़न, अत्याचार व महाजनी प्रथा के विरुद्ध था। इस हुल ने भारत की स्वतंत्रता संग्राम की नींवें भी तैयार कर के रख दी थी। महाजनों के प्रभाव में आने के बाद आदिवासियो की सिथति दिन-ब-दिन दयनीय होती जाती थी, परिणामस्वरुप वे हाशिये पर हो गए थे। आदिवासी जल-जंगल व जमीन के उपर ही निर्भर होते हैं, जीवन जीने का इनके पास कोर्इ अन्य विकल्प नहीं रह जाता है। यदि इनकी जमीन हस्तांतरणीय बना दी जाएगी तो आर्थिक रुप से कमजोर व अशिक्षित आदिवासी अपनी असिमता को भी खो देगें। उनका असितत्व समाप्त हो जाएगा। अंग्रेजों की बनायी गर्इ नीतियों से आदिवासी समुदाय काफी हद तक अपनी-अपनी जमीन पर आज भी मालिकाना हक बनाए हुए है। प्राकृतिक सम्पदाओें की भरमार से बाहरी पूजीपतियों की लगातार दखलंदाजी व सरकार में बैठे लोगों की इन आदिवासियों के प्रति उपेक्षा की भावना से क्षेत्र में उधोगीकरण का सिलसिला लगातार जारी है। यह आकड़ा चौकाने वाला है कि अलग राज्य के रुप में असितत्व में आने के बाद से लेकर अब तक झारखण्ड में सौ से भी अधिक मेगा एमओयू पर सरकार व अलग-अलग कम्पनियों के समझौते हुए, जिनपर काम व विरोध भी जारी है।
संताल परगना प्रमण्डल अन्तर्गत तीन ऐसे क्षेत्र हैं जहा पावर प्लान्ट के लिये सबसे उत्तम किस्म के कोयले पाए जाते हें। ललमटिया कोल परियोजना, पेनेम कोल परियोजना व चितरा कोल माइन्स। 30 नवम्बर 2006 को राज्य के उपमुख्यमंत्री की उपसिथती में पाकुड़ के अमरापाड़ा प्रखण्ड में सिथत कुल 11 गावों (सिंहदेहरी, तालझारी, खटलडीह, चिलगो, विशनपुर, डांगापाड़ा, आमझारी, आलूबेड़ा व पाचूबाड़ा) में कोयला उत्खनन के लिये राज महल पहाड़ बचाओ आन्दोलन के अध्यक्ष के बीच पेनेम कोल परियोजना के संचालक का कर्इ मुददों को ध्यान में रखकर एकरारनामा पर हस्ताक्षर संपन्न हुआ। पंजाब स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड को कोयला आपूर्ति के लिये इस परियोजना द्वारा पाकुड़ के अमड़ापाड़ा प्रखण्ड सिथत इन तमाम गावों में कोयला उत्खनन का सर्वाधिकार दे दिया गया। कम्पनी ने इस एवज में कर्इ अहम मुददों पर काम करने की अपनी बाध्यता रखी। शतोर्ं के मुताबिक कम्पनी ग्रामीणों को वह सारी सुविधाऐं मुहैया करवाएगी जो जीवन के लिये अनिवार्य है मसलन रोटी, कपड़ा मकान, शिक्षा, उनकी परंपरागत संस्कृति, रीति-रिवाज और खान-पान इत्यादि। समझौते के मुताबिक कम्पनी ने कोयला उत्खनन का कार्य व्यापक पैमाने पर तो करना प्रारंभ कर दिया किन्तु अपने वायदे से हमेशा मुकरती रही। जिन क्षेत्रों में कम्पनी कोयला उत्खनन का कार्य कर रही है लोग मुख्य धारा से आज भी पीछे है। वहां न तो रोजगार की पूर्ण व्यवस्था ही कम्पनी कर पायी है और न ही शिक्षा की उचित व्यवस्था। आवासीय व्यवस्था भले ही दिखावे के लिये निर्मित कर दी गर्इ लेकिन न तो विधुत व्यवस्था ग्रामों में बहाल है और न ही पेयजलापूर्ति की उचित व्यवस्था। सड़कें पूरी तरह खराब हैं। न तो स्कूल-कालेजों की स्थापना की गर्इ और न मनोरंजन, खेल की कोर्इ व्यवस्था। कम्पनी द्वारा कोयला उत्खनन गाव में रौशनी तक लोगों को उपलब्ध करा पाने में उसमर्थ है। विदित हो पेनेम कोल परियोजना में कुल 400 इम्प्लार्इज हैं। जिस खटलडीह ग्राम में इस परियोजना द्वारा प्रतिदिन 550 डम्फरों के माध्यम कोयला उत्खनन का कार्य किया जा रहा है उक्त ग्राम में तकरीबन 150 घर विस्थापित हैं। इन 550 डम्फरों के माध्यम से प्रतिदिन तकरीबन तीन लाख टन कोयला का उत्खनन कार्य किया जाता है। आकड़ों पर गौर करें तो प्रति एक डम्फर में 30 टन कोयला की ढुलार्इ की जाती है। इस तरह कुल 550 डम्फरों के माध्यम से एक ट्र्रीप में 16500 टन कोयला ढोया जाता है। इस तरह तकरीबन प्रतिदिन 5-6 रैक कोयला उत्खनन कर उसे पंजाब भेजा जाता है। प्राप्त आकड़ों के मुताबिक एक रेलगाड़ी में कुल 55 से 60 बोगियां होती हैं, और प्रतिदिन तकरीबन 5 से 6 रैक कोयला उत्खनन कर उसे पंजाब भेजा जाता है।
इस तरह पेनेम कोल परियोजना कर्मचारियों के वेतन-भत्ते, डीजल-पेट्र्रोल, इस बड़ी व्यवस्था के सारे खर्च के बाद तकरीबन 2 करोड रुपये प्रतिदिन कम्पनी को शुद्ध मुनाफा होता है। मासिक आय की गणना करें तो यह मुनाफा 60 करोड़ व वार्षिक 720 करोड़ रुपये होता है। जो कम्पनी प्रति वर्ष 720 करोड़ रुपये का शुद्ध मुनाफा कमाती है उसकी सिथति यह है कि विस्थापितों के लिये जो सुविधाएं-व्यवस्थाएं संवैधानिक तौर पर किया जाना चाहिए उससे कोसों दूर है। यह तो एक उदाहरण है इस तरह की बाहर की कम्पनियां झारखण्ड आकर करोड़ों-अरबों रुपये प्रतिमाह कमाती है लेकिन झारखण्ड की अवाम को न तो दो जून की रोटी नसीब है और न ही पूरी तरह तन ढ़कने के लिये कपड़ा। किसी भी हालत में पूजीपतियों को जल-जंगल, जमीन न देने की वर्शों से राजनीति करने वाले झारखण्ड के रहनुमार्इनो ने भी इस राज्य को दलदल में डाल कर अपने साम्राज्य को बढ़ाने का ही काम किया है।
पहाड़ और जंगल जो आदिवासियों की जीवन-संस्कृति का अभिन्न अंग है जिसकी मौजूदगी से ही उनका असितत्व झलकता है, अपने कुनबे से लगातार बेदखल किये जा रहे, ऐसा क्यू? आदिवासियों, दलितों, शोशितों, पिछड़ों व अन्य आहत वर्गों की बेहतरी के लिये योजनाओं को अमल में लाने की बातें कही जाती है और इन्हें हर तरह की सुविधाओं से परिपूर्ण रखने की घोषणाएं दुहरायी जाती है तो फिर धरातल पर इस तरह की दोहरी नीति आखिर क्यों?
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