शिवसेना के संस्थापक और उस संगठन के सर्वश्रेष्ठ प्रभावी नेता श्री बाळासाहब ठाकरे का १७ नवंबर को निधन हुआ. उनके कद का, उनकी ताकद का और उनके समान लाखों अनुयायीयों पर धाक रखने वाला दूसरा नेता शिवसेना के पास नहीं, यह सर्वमान्य है. इसमें विद्यमान नेतृत्व की निंदा नही. केवल वस्तुस्थिति का निदर्शन है.
परिवारवाद
व्यक्ति केन्द्रित संगठन हो या राजनीतिक पार्टी, सर्वोच्च पद पर की व्यक्ति के जाते ही, ऐसे प्रश्न निर्माण होना स्वाभाविक मानना चाहिए. इस कारण पुराने राजघरानों के समान, परिवारवाद पर चलने वाली पार्टिंयॉं, जहॉं तक हो सके, विद्यमान नेता अपने सामने ही, अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति निश्चित कर देता है. पंजाब में, अकाली दल के नेता मुख्यमंत्री प्रकाशसिंग बादल ने, अपने पुत्र को उपमुख्यमंत्री बनाकर ऐसी ही व्यवस्था कर दी है. मुलायम सिंह ने सीधे अपने पुत्र को ही मुख्यमंत्री बना दिया. लालू प्रसाद यादव ने पत्नी को ही मुख्यमंत्री बनाया था. द्रविड मुन्नेत्र कळघम के सर्वेसर्वा करुणानिधि के दोनों पुत्र होनहार है. उनमें से एक केन्द्र सरकार में मंत्री भी है. वह करुणानिधि का ज्येष्ठ पुत्र है. लेकिन करुणानिधि का झुकाव, छोटे स्टॅलिन की ओर है. करुणानिधि है, तब तक सब ठीक चल भी सकता है. लेकिन उनके बाद संघर्ष अटल है. यह सब छोटे मतलब प्रादेशिक पार्टिंयों के उदाहरण है. लेकिन जो सबसे पार्टी के रूप में जानी जाती है, वह कॉंग्रेस भी परिवारवाद की ही पुरस्कर्ता है. श्रीमती इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी इस परंपरा के अनुसार, अब राहुल गांधी का अनौपचारिक ही सही, राज्यारोहण-विधि हो चुका है और देश भर के कॉंग्रेसियों ने उसे मान्यता भी दी है. बाळासाहब ठाकरे ने भी उनके पुत्र उद्धव ठाकरे को उनकी पार्टी का कार्याध्यक्ष बनाकर उसी परंपरा का पालन किया. इतना ही नहीं, उद्धव ठाकरे के पुत्र - आदित्य को शिवसेना के युवकों के संगठन के मूर्धन्य स्थान पर बिठाया.
‘मनसे’की ताकद
इस स्थिति में शिवसेना के भविष्य के बारे में चिंता करने या उस प्रश्न पर विचार करने का प्रयोजन होने का कारण ही नहीं होना चाहिए. लेकिन प्रयोजन है. कारण, ठाकरे परिवार के ही, बाळासाहब के सगे भतिजे राज ठाकरे ने बाळासाहब के होते ही, उद्धव ठाकरे का नेतृत्व मानने को नकार दिया. बाळासाहब जैसे प्रचंड ताकदवान नेता की इच्छा के सामने गर्दन न झुकाकर, उन्होंने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) नाम से नई पार्टी बनाई; और २००९ में हुए विविध स्तरों के चुनावों में शिवसेना की परवाह किये बिना अपनी शक्ति प्रकट की. महाराष्ट्र राज्य विधानसभा में मनसे के १३ विधायक है. २८८ की विधानसभा में १३ यह लक्षणीय संख्या नहीं, कोई ऐसा कह सकता है. लेकिन बाळासाहब के राजनीति में सक्रिय रहते मनसे इस संख्या तक पहुँची, यह उल्लेखनीय. उसके बाद हुए नगर पालिका और महानगर पालिका के चुनावों में भी मनसे ने अपनी ताकद दिखाई है. मुंबई, ठाणे, नासिक,औरंगाबाद महापालिकाओं में की मनसे की ताकद को दुर्लक्षित नहीं किया जा सकता. राज ठाकरे ने यह जो करिष्मा किया, वैसा प्रकाशसिंह बादल का भतिजा नहीं कर पाया. उनका पूरा नाम मुझे याद नहीं. लेकिन उनके नाम के अंत में ‘मान’ है. मान भी अकाली दल से अलग हुए है. अलग होकर उन्होंने भी चुनाव लड़ा, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली. इस कारण वे सांप्रत पंजाब की राजनीति में उपेक्षित है. बाळासाहब ठाकरे के बाद मनसे की ताकद और बढ़ेगी. और मनसे की ताकद बढ़ने का अर्थ है शिवसेना की ताकद घटना.
एकीकरण
क्या शिवसेना और मनसे एक साथ आएगी, यह प्रश्न पूछा जा सकता है. वह एकदम अप्रस्तुत नहीं. बाळासाहब ठाकरे की अंतिम बिमारी के समय, उसी प्रकार उद्धव ठाकरे पर हुई शस्त्रक्रिया के समय राज ठाकरे, सारा विरोध भूलकर उनसे भेट करने गये थे. बाळासाहब के अंतिम समय में वे उद्धव ठाकरे के कंधे से कंधा मिलाकर खड़े थे. उनकी इस कृति को क्या राजनीति की चाल माने, ऐसा प्रश्न पूछा जा सकता है. मेरे मतानुसार वह राजनीति की चाल नहीं होनी चाहिए, होगी भी नहीं. लेकिन राज ठाकरे के इस वर्तन से, उनका कद बड़ा हुआ है, यह निश्चित. इस प्रकार मन का बड्डपन दिखाने वाले राज ठाकरे उनकी पार्टी शिवसेना में विलीन कर स्व. बाळासाहब की आत्मा को आनंद देगे, यह प्रश्न अधिक महत्त्व के है. ऐसा एकीकरण हो सकता है. लेकिन वह राज ठाकरे के नेतृत्व में ही होगा, उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में नहीं. स्वयं उद्धव ठाकरे और मनोहर जोशी, रामदास कदम, संजय राऊत जैसे शिवसेना के ज्येष्ठ नेताओं को क्या यह मान्य होगा, यह महत्त्व का प्रश्न है. लेकिन शिवसेना का नाम और प्रतिष्ठा टिकाकर रखनी होगी तो इसके अलावा अन्य कोई मार्ग नहीं, ऐसा मुझे लगता है.
समझौते की संभावना
यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि, उद्धव ठाकरे की तबीयत अपेक्षाकृत सुदृढ नहीं है. दो बार हृदय पर ‘ऍन्जोप्लास्टी’ हुई है. उनकी आयु अधिक नहीं है, लेकिन इस हृदय विकार ने उनकी कार्यशक्ति को निश्चित ही बाधित किया होगा. अपने स्वास्थ्य की इस स्थिति में, उद्धव ठाकरे, दुय्यमत्व स्वीकार कर क्या राज ठाकरे के हाथों पार्टी के सूत्र सपूर्द करेगे, यह प्रश्न है; और वह शिवसेना के भविष्य मतलब नाम और प्रभाव से भी जुड़ा है. दोनों पार्टियॉं आज के समान ही अलग-अलग रही और २०१४ के विधानसभा के या लोकसभा के चुनाव में मनसे ने शिवसेना को मात दी तो आश्चर्य नहीं. अलग-अलग रहकर भी २०१४ का विधानसभा का चुनाव लड़ा जा सकता है. और दोनों मिलकर सौ के करीब सिटें जीत पाई, तो सत्ता के लिए वे एक भी आ सकते है. लेकिन यह सुविधा के लिए किया समझौता हो सकता है; हृदय से एक होना नहीं. इस कारण वह शक्तिसंपन्नता का आलंबन भी नहीं हो सकेगा.
महागठबंधन का भविष्य
बाळासाहब ठाकरे के निधन के बाद निर्माण होने वाली परिस्थिति का परिणाम महाराष्ट्र की संपूर्ण राजनीति पर भी हो सकता है. महाराष्ट्र में शिवसेना,भाजपा और रामदास आठवले की रिपाइं का महागठबंधन है. यह महागठबंधन शक्तिशाली है. नगरपालिका और महानगर पालिका के चुनावों में, इस महागठबंधन का अपेक्षाकृत प्रभाव दिखाई नहीं दिया, लेकिन विधानसभा के चुनाव में वह दिखाई दे सकता है. महापालिका के चुनाव बड़े शहरों के संदर्भ में थे. विधानसभा के चुनावों में ग्रामीण क्षेत्र को अधिक महत्त्व होगा; इसलिए ही रिपाइं का साथ शिवसेना-भाजपा गठबंधन को उपकारक सिद्ध होगा,इसमें कोई संदेह नहीं. इसमें रिपाइं का भी लाभ है. लेकिन शिवसेना का नेतृत्व राज ठाकरे के पास गया, तो क्या रिपाइं गठबंधन के साथ रहेगी, यह प्रश्न है. गठबंधन में मनसे को समाविष्ट करने के लिए आठवले का विरोध है. कारण उन्हें ही पता होगा. लेकिन विरोध है, यह स्पष्ट है. मनसे को गठबंधन में शामिल करे, ऐसा भाजपा के शक्तिशाली नेताओं का मत है. अभी तक, संपूर्ण भाजपा ने इस बारे में निश्चित अधिकृत भूमिका नहीं ली है. लेकिन वह भूमिका पार्टी को लेनी ही होगी. राज ठाकरे के हाथ ही शिवसेना का नेतृत्व आया, तो फिर विचार करने का प्रश्न ही नहीं. कारण, गठबंधन शिवसेना के साथ है व्यक्ति के साथ नहीं. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और मनसे अलग ही रही, तो भाजपा की नीति क्या होगी? मनसे की आज की शक्ति, और बाळासाहब ठाकरे के निधन के बाद उस शक्ति में बहुत बड़ी मात्रा में वृद्धि होने की संभावना ध्यान में लेते हुए, भाजपा ने, शिवसेना को छोडकर, मनसे के साथ गठबंधन करने की संभावना नकारी नहीं जा सकती.
सत्तारूढ गठबंधन में खटपट
भाजपा और मनसे का गठबंधन प्रभावी हो सकता है. कॉंग्रेस और राष्ट्रवादी कॉंग्रेस गठबंधन में चल रही खटपट की पार्श्वभूमि पर वह अधिक प्रभावी सिद्ध होगा. कॉंग्रेस और राष्ट्रवादी कॉंग्रेस के बीच आज जो अ-स्वस्थता का वातावरण है, उसका परिणाम २०१४ के लोकसभा के चुनाव पर नहीं भी होगा. वे लोकसभा के चुनाव एक होकर लड़ेंगे. शरद पवार गठबंधन नहीं टूटने देंगे. लेकिन यह एकता लोकसभा के चुनाव के बाद चार-पॉंच माह में होने वाले राज्य विधानसभा के चुनाव में नहीं दिखाई देगी. शायद गठबंधन कायम रहेगा. लेकिन दोनों के प्रयास एक-दूसरे के पॉंव खीचने के ही रहेंगे. अब तक,संख्या कुछ भी हो, लेकिन मुख्यमंत्री कॉंग्रेस का ही रहेगा, इसे राष्ट्रवादी कॉंग्रेस ने मान्यता दी है. किंतु इसके बाद यह संभव होगा, ऐसे संकेत नहीं दिखाई देते. जिसके विधायक अधिक उसका मुख्यमंत्री, यह समझौते का सूत्र हो सकता है. इस परिस्थिति में, अपने विधायक अधिक संख्या में चुनकर आए, इस सकारात्मक रणनीति के साथ ही, दूसरे के विधायकों की संख्या अपने विधायकों की संख्या से कम कैसे रहेगी, यह नकारात्मक रणनीति भी कार्यरत रहेगी ही. इस परिस्थिति में मनसे-भाजपा गठबंधन को सत्ता प्राप्त करने का मौका मिल सकेगा. कुछ अघटित होकर, शिवसेना, मनसे और भाजपा का गठबंधन हुआ और उसमें आठवले की रिपाइं भी शामिल हुई, तो २०१४ में इस गठबंधन की सरकार स्थापन होने की संभावना बहुत अधिक है.
भविष्य
यह सब संभावनाए और प्रश्न बाळासाहब के निधन के कारण चर्चा में आए है. उनके निश्चयात्मक उत्तर दिए जाने की स्थिति आज नहीं. कुछ समय राह देखनी होगी, उसके बाद ही इन प्रश्नों के उत्तर क्रमश: स्पष्ट होते जाएगे. इन सब संभावनाओं और प्रश्नों पर ही शिवसेना का भविष्य निर्भर है. केवल‘शिवसेना’ इस नाम का ही नहीं, शिवसेना के नेतृत्व के पदों पर जो लोग आरूढ हैं, उनका भी सियासी भविष्य इस पर ही निर्भर होगा. तो, कुछ समय राह देखते है.
- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)
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