प्रधानमंत्री ने अध्यापकीय लहजे में देश को समझा दिया कि पैसा पेड़ों पर नहीं आता है। वह तो डीजल के दाम बढ़ाने से, एफडीआइ लाने से, गैस तथा चीनी महंगी करने से पैदा होता है। उससे सरकार चलती है। भले ही देश रुक जाए, सरकार तो चलनी ही चाहिए। यह 1993 में देश ने देखा था जब सरकार गिरने वाली थी, मगर झारखंड मुक्ति मोर्चा तथा पैसे के खेल से चल गई। कैश-फार-वोट की कहानी भी कभी न कभी सामने आएगी ही। पैसे पर प्रधानमंत्री ने जब पेड़ का जिक्र किया तो योजना आयोग ने बड़े मनोयोग से आइएमएफ स्टाइल में और ऐसे Fोत ढूंढने का प्रयास प्रारंभ किया जहां पैसा उगता हो और उसे बड़ी आसानी से उच्च शिक्षा का क्षेत्र मिल गया। 12वीं पंचवर्षीय योजना के अंतिम प्रारूप में आयोग ने उच्च शिक्षा में निवेशकों को लाभांश कमाने की छूट का प्रावधान शामिल कर लिया है। चूंकि पिछले आठ सालों में यह लगातार देखा गया है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय तथा योजना आयोग सदा ही विपरीत दिशाओं में ही चलते रहे हैं अत: इस बार भी उनके विचार विपरीत दिशा में जाना अप्रत्याशित नहीं था। योजना आयोग को उच्च शिक्षा में सबसे अहम समस्या और टैक्स लगाना ही दिखाई दिया। मानव संसाधन मंत्रालय की प्राथमिकताएं स्पष्ट हैं-विदेशी विश्वविद्यालय भारत में आएं, अपने कैंपस खोलें तथा भारत की उच्च शिक्षा का संभालें। स्कूल शिक्षा में मंत्रालय पूरी तरह अमेरिका की नकल करना चाहता है। पिछले तीन सालों से अनगिनत सुधारों की घोषणाएं इस मंत्रालय ने कीं, मगर अधिकांश कागजों पर ही रह गईं। मंत्रालय सालों से इग्नू तथा यूजीसी में कुलपति तथा अध्यक्ष की नियुक्ति नहीं कर पाया। यही हाल अनेक संस्थाओं का है। सबसे अधिक अपेक्षा तो कक्षा एक से आठ तक की शिक्षा में सुधार की थी। शिक्षा के अधिकार अधिनियम के एक अप्रैल 2010 से लागू होने के बाद यह स्वाभाविक अपेक्षा थी। संभवत: योजना आयोग तथा मानव संसाधन विकास मंत्रालय उस व्यवस्था की वास्तविकता को जानते हैं जिसके तहत बड़ी तेजी से प्राइवेट विश्वविद्यालय तथा व्यावसायिक कालेज खुले थे। 2005-09 के बीच मंत्रालय, एआइसीटीई, एनसीटीई, एमसीआइ इत्यादि ने बहुत नाम कमाया था। कहा जाता है कि नाम भी खूब स्थानांतरित हुआ। निजी भागीदारी का शिक्षा में आना आवश्यक है, इसे सभी मानते हैं, लेकिन जो लोग इसमें निवेश करने आते हैं वे लाभांश अवश्य कमाना चाहते हैं। उनके लिए शिक्षा किसी भी दूसरे व्यवसाय की तरह है। ऐसे लोग बड़ी संख्या में आए हैं जो स्वयं सत्ता में हैं या रहे हैं या जिनके ऊंचे रसूख हैं। यदि कोई स्वतंत्र सर्वेक्षण किया जाए कि उच्च शिक्षा में अधिकांश प्राइवेट संस्थानों के मालिक कौन हैं तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आएंगे। कितने मंत्रियों पूर्व मंत्रियों की संतानें कुलपति जैसे पदों को सुशोभित कर रही हैं। शिक्षा में राजनीतिज्ञों की उपस्थिति के प्रभाव का भी पता चलेगा। योजना आयोग कह सकता है कि यह उसका कार्यक्षेत्र नहीं है। तब मंत्रालय से पूछा जाना चाहिए कि उन संस्थानों को खुली छूट क्यों है जो उच्च शिक्षा में प्रवेश कराने के लिए कमीशन एजेंट नियुक्त कर युवाओं को लुभाते हैं, अच्छे ग्रेड तथा नंबर केवल इसलिए दिलाते हंै ताकि अगले बैच के छात्र इससे प्रभावित होकर प्रवेश ले लें। क्या ऐसे लोगों को लाभ कमाने का औपचारिक अधिकार देना उचित होगा या पहले इन प्रवृत्तियों तथा व्यक्तियों पर नियंत्रण करना आवश्यक होना चाहिए? अनेक लोग जिनके लिए शिक्षा केवल व्यापार है, उच्च शिक्षा में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं तथा निर्वाध तथा निर्भय होकर उसके स्तर गिरा रहे हंै। आवश्यकता है कि सरकार जागे, और इस अस्वीकार्य स्थिति को सुधारे। सुधार की दिशा में तथा अस्वीकार्य तथ्यों पर अंकुश लगाने के मूलभूत कार्य का प्रारंभ तो सरकारी विश्वविद्यालयों तथा उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रारंभ करना होगा। सत्तर तथा अस्सी के दशक में सरकारों ने उच्च शिक्षा से हाथ खींचना प्रारंभ किया था। केंद्र तथा राज्य सरकारों ने अपने अनुदान कम किए तथा यह निर्देश दिए कि स्ववित्तपोषित पाठ्यक्रम चलाए जाएं। सरकार की आंख के नीचे इसका जमकर दुरुपयोग हुआ। यूजीसी भी अनभिज्ञ नहीं था। विश्वविद्यालयों ने पत्राचार पाठ्यक्रमों पर जोर दिया, मनमानी धनराशि वसूली तथा उससे भवन बनाए, कारें खरीदीं, एसी लिए तथा विदेशी दौरे किए। कहीं-कहीं तो पाठ्यक्रम पर केवल 30 प्रतिशत के आसपास खर्च किया गया। सभी प्रसन्न थे-केवल गुणवत्ता लगातार घटती रही। यदि सरकार के विश्वविद्यालयों में अध्यापकों के 40-60 प्रतिशत पद लगातार वर्षो खाली रखे जाएंगे तो प्राइवेट निवेशकों से यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वे पूरी संख्या में अध्यापकों की नियुक्ति करेंगे? उच्च शिक्षा में इस समय सबसे बड़ी आवश्यकता है कि ऐसे अध्यापक हों जो गुणवत्ता सुधार को प्राथमिकता दें। उच्च शिक्षा में गुणवत्ता सुधार की चाबी तो प्राथमिक स्तर के पास ही रहती है। यदि नींव कमजोर होगी तब आगे सृदृढ़ता प्राप्त करना कठिन होगा। यह बार-बार दोहराया जाता रहा है कि शिक्षा को जीडीपी का 6 प्रतिशत मिलना चाहिए। यदि मानव संसाधन मंत्री तथा योजना आयोग दृढ़ निश्चय कर लें कि अगले दो साल वे केवल गांवों तथा दूर-दराज के कक्षा एक से आठ तक के स्कूलों को सुधारने में लगाएंगे तो शिक्षा में व्यवस्थागत तथा गुणात्मक स्तर के सुधार हर तरफ दिखाई देंगे। योजना आयोग बजाय और टैक्स लगाने के वर्तमान दयनीय स्थिति को सुधारने के लिए आगे आए, मंत्रालय से समन्वय स्थापित करे तथा राज्यों की कठिनाइयों की सहानुभूतिपूर्वक समझ कर उनका समाधान तलाशे। ऐसा करके वह शैक्षिक विकास तथा प्रगति को सही दिशा दे सकेगा। (लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं) 1ी2श्चश्रल्ल2ी@Aंॠ1ंल्ल.Yश्रे
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