Friday, October 5, 2012

पतन की पराकाष्ठा

हजारों करोड़ रुपये के घोटालों के आरोपी सांसदों ए राजा और सुरेश कलमाड़ी का संसद की स्थायी समितियों में शामिल होना लोकतांत्रिक मूल्यों-मर्यादाओं का उपहास ही नहीं, बल्कि आम जनता के साथ किया जाने वाला भद्दा मजाक भी है। यह फैसला इस धारणा पर मुहर लगाता है कि जन प्रतिनिधियों ने अपने लिए अलग मानदंड बना रखे हैं और आम जनता के लिए अलग। दागी सांसदों को संसदीय समितियों में शामिल न किए जाने की कोई बाध्यता न होने के बावजूद ऐसा किया जाना इस बात का परिचायक है कि जिनके हाथों में लोकतंत्र की बागडोर है उन्हें लोक लाज की परवाह नहीं। एक ऐसे समय जब देश की जनता बढ़ते घपले-घोटालों को लेकर कुपित है और उसकी आंच राजनेता भी महसूस कर रहे हैं तब दागदार सांसदों को संसदीय समितियों में सुशोभित किया जाना राजनीतिक अनैतिकता की पराकाष्ठा है। यह नैतिक चेतना पर जानबूझकर किया जाने वाला प्रहार है। इस फैसले की जितनी भी निंदा-भ‌र्त्सना की जाए कम है। ऐसे बेशर्म राजनीतिक फैसले की मिसाल मिलना दुर्लभ है। आखिर वे सब कहां चले गए जो अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान नैतिकता की दुहाई दे रहे थे और संसद की महानता का बखान करते नहीं थक रहे थे? क्या संसद इस तरह से महान बनेगी? क्या यही है लोकतंत्र का मंदिर? क्या इससे बड़ा मजाक और कोई हो सकता है कि जिन पर कानून तोड़ने के संगीन आरोप हैं उन्हें अब और अच्छे से कानून बनाने की जिम्मेदारी दी जा रही है? क्या संसद में योग्य नेताओं का ऐसा अभाव पैदा हो गया है कि अब वह राजा-कलमाड़ी पर आश्रित होने को मजबूर है? राजा, कलमाड़ी और कनीमोरी को संसदीय समितियों में शामिल करने के पक्ष में जो भी तर्क दिए जा रहे हैं वे कुतर्क के अलावा और कुछ नहीं। आखिर इस घिसे हुए तर्क के सहारे कब तक अनैतिकता को खाद-पानी दिया जाता रहेगा कि दोषी सिद्ध न होने तक हर कोई निर्दोष है? नि:संदेह कानून यही कहता है, लेकिन लोकतंत्र में लाज-शर्म के लिए कोई जगह बची है या नहीं? ध्यान रहे कि इसी तर्क के सहारे भ्रष्ट एवं अपराधी प्रवृत्ति के तत्वों को चुनाव मैदान में उतारा जाता है और ऐसी हर उस पहल को परवान भी नहीं चढ़ने नहीं दिया जाता जिससे दागी लोग चुनाव न लड़ सकें। यदि किसी परंपरा के तहत दागी सांसद संसदीय समितियों में शामिल हो जा रहे हैं तो क्या ऐसी परंपरा को उलटने का काम किसी अन्य देश के राजनीतिक दल करेंगे? क्या राजनीतिक दलों ने यह ठान लिया है कि वे नैतिकता की राजनीति का जनाजा ही निकाल कर रहेंगे? आखिर अब किस मुंह से कोई यह कह सकता है कि राजनीति का काम समाज को दिशा दिखाना है? यह शर्मनाक है कि न तो कांग्रेस और द्रमुक को कलमाड़ी, राजा एवं कनीमोरी को संसदीय समितियों में शामिल करने का प्रस्ताव आगे बढ़ाते हुए लाज आई और न ही उन्हें जिन्होंने इस प्रस्ताव पर अमल किया। यह खेद का विषय है कि जब लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा सभापति के लिए यह अनिवार्य नहीं कि वे राजनीतिक दलों की ओर से संसदीय समितियों के लिए आगे बढ़ाए गए नाम स्वीकार ही करें तब भी राजा, कलमाड़ी और कनीमोरी के नाम पर मुहर लग गई। यह तो अनर्थ हो गया।

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