खजाने का पहरेदार है कैग
रमेश दुबे प्रेसिडेंशियल रिफरेंस पर 28 सितंबर को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सरकार ने यह भ्रम पाल लिया था कि प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन के मामले में उसकी नीति सही है। इसीलिए कैग (नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक) को नसीहत और हिदायतें देने का सिलसिला एक बार फिर तेज हो गया था। लेकिन एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने जो टिप्पणी की, उससे सरकार का भ्रम टूट गया। दरअसल, कैग के अधिकार क्षेत्र को चुनौती देने वाली एक जनहित चाचिका को सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ खारिज कर दिया, बल्कि यह भी स्पष्ट कर दिया कि कैग कोई मुनीम नहीं है। वह एक संवैधानिक संस्था है, जो राजस्व आवंटन और अर्थव्यवस्था से जुड़े मामलों की जांच कर सकता है। यदि कैग यह काम नहीं करेगा तो कौन करेगा? कोर्ट ने यह भी कहा कि कैग अपनी रिपोर्ट संसद या संबंधित राज्य विधानसभा को सौंपता है और इन रिपोर्ट्स पर कार्रवाई करने के बारे में फैसला संसद और संबंधित विधानसभाओं को करना होता है। ताजा विवाद की शुरुआत 2जी स्पेक्ट्रम पर कैग की रिपोर्ट से हुई, जिसे संप्रग सरकार ने निराधार ठहराया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के सामने उसकी कोई दलील टिक नहीं पाई और शीर्ष अदालत ने 122 लाइसेंस रद करते हुए पहले आओ, पहले पाओ की नीति को गलत बताने के साथ ही कहा था कि प्राकृतिक संसाधनों का आवंटन प्रतिस्पर्धी बोली के जरिये किया जाना चाहिए। सरकार ने 2जी स्पेक्ट्रम मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरुद्ध पुनर्विचार याचिका दायर करने का मन बनाया था, लेकिन बाद में उसने अपनी याचिका वापस ले ली और इस मामले को प्रेसिडेंशियल रिफरेंस के जरिये सुप्रीम कोर्ट तक ले जाने का निर्णय किया। प्रेसिडेंशियल रिफरेंस के तहत राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट से उसके किसी फैसले की कैफियत पूछ सकते हैं। यह पूरी तरह स्वैच्छिक होता है यानी कोर्ट इस पर राय देने के लिए बाध्य नहीं होता। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर अपनी राय बनाने के लिए राज्य सरकारों, औद्योगिक संगठनों और 2जी स्पेक्ट्रम मामले में याचिका दायर करने वाले दोनों पक्षों से बात की। इसके बाद ही उसने प्राकृतिक संसाधनों की बिक्री पर अपना फैसला सुनाया कि नीलामी प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन का एकमात्र तरीका नहीं हो सकता। इस निर्णय को अपनी जीत मानते हुए कई केंद्रीय मंत्री भारत सरकार के सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी (सीएजी) को कठघरे में खड़ा करने लगे थे। संविधान के प्रहरी इसे संविधान निर्माताओं की दूरदर्शिता ही कहेंगे कि उन्होंने हर महत्वपूर्ण जगहों पर नियंत्रण एवं संतुलन की व्यवस्था के तहत प्रहरी बैठाने का प्रावधान कर रखा है। संविधान निर्माताओं ने इन पहरेदारों को संवैधानिक नियमों का कवच भी पहना दिया ताकि वे कार्यपालिका के दबाव से मुक्त होकर संविधान द्वारा दी गई शक्तियों का प्रयोग करें। चुनाव आयुक्त, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, संघ लोक सेवा आयोग, मुख्य सतर्कता आयुक्त आदि ऐसे ही प्रहरी हैं। लेकिन आजादी के बाद लंबे समय तक ये पहरेदार संविधान के बजाय सरकार की पहरेदारी करते नजर आए। टीएन शेषन से पहले चुनाव आयोग एक गुमनाम-सी संस्था और मुख्य चुनाव आयुक्त कानून मंत्री का पिछलग्गू हुआ करता था, लेकिन जैसे ही टीएन शेषन ने चुनाव आयोग की गरिमा स्थापित करने की कोशिश की, वैसे ही वे सरकार की आंख में खटकने लगे। सरकार ने मुख्य चुनाव आयुक्त के पर कतरने की योजना के तहत तीन चुनाव आयुक्त का नियम बना दिया, जिसमें फैसले बहुमत के आधार पर लिए जाते हैं। जब शेषन फैक्टर का असर अन्य संवैधानिक संस्थाओं पर पड़ने लगा तो सरकार सचेत हो गई और वह इन संस्थाओं पर ऐसे नौकरशाहों को बैठाने लगी, जो उसके हितों के अनुकूल हों। मुख्य सतर्कता आयुक्त के पद पर पीजे थॉमस की नियुक्ति और उसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा अवैध ठहराने से यह साबित हो चुका है। संविधान निर्माताओं ने हिसाब-किताब की रखवाली करने जिम्मेदारी नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल या कैग) की सौंपी है, जिसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। कैग वित्तीय प्रशासन के क्षेत्र में संविधान एवं संसद द्वारा बनाए गए कानूनों का अनुपालन सुनिश्चित करता है। हाल तक कैग को उबाऊ, आंकड़ेबाज और हिसाबी-किताबी संस्था माना जाता था। उसकी रिपोर्ट औपचारिकता मात्र होती थी और ऑडिट टिप्पणियों पर सरकारी विभाग उबासी लेते थे, लेकिन आज उसी कैग से सरकारें हिल रही हैं। इसलिए उस पर तरह-तरह के आरोप भी लगाए जा रहे हैं, लेकिन इससे उसकी विश्वसनीयता बढ़ती ही जा रही है। इस संवैधानिक संस्था पर ताजा हमलों की शुरुआत इस साल 17 अगस्त को हुई, जब कोयला खदानों के आंवटन पर कैग की रिपोर्ट संसद में पेश की गई। रिपोर्ट में कैग ने इस मामले में सरकार की नामांकन नीति की खिंचाई करते हुए इससे सरकारी खजाने को 1.86 लाख करोड़ रुपये के भारी नुकसान होने का अनुमान लगाया है, जिसका लाभ निजी कंपनियों को मिला। कैग ने इस अनुमान के लिए 2010-11 के दौरान दर्ज की गई कोल इंडिया लिमिटेड की औसत उत्पादन लागत और औसत बिक्री मूल्य को आधार बनाया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि विधि विभाग की सलाह के आधार पर 2006 में कोयला ब्लॉकों के आवंटन के लिए नीलामी प्रक्रिया अपनाई जा सकती थी, लेकिन सरकार ने इसे नहीं अपनाया और मनमाने तरीके से आवंटन किया, जिससे सरकार को राजस्व हानि हुई। कैग की रिपोर्ट पेश होने के बाद से संसद में बवाल मचना शुरू हो गया। मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी प्रधानमंत्री के इस्तीफे पर अड़ी रही, क्योंकि जिस समय कोयला खदानों का आवंटन किया गया था, उस दौरान कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री के जिम्मे था। ऐसे में भ्रष्टाचार के इतने बड़े मामले पर प्रधानमंत्री की अनभिज्ञता का सवाल ही नहीं उठता। दूसरी ओर प्रधानमंत्री ने अपनी गलती न मानकर कैग की रिपोर्ट के तथ्यों की सत्यता पर सवाल उठाए और नुकसान के आकलन के आधार को गलत बताया। इसके बाद तो सरकार और कांग्रेस नेताओं की एक टीम ही कैग (विनोद राय) के पीछे पड़ गई। यह आरोप लगाया गया कि कैग की अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं और उनकी रिपोर्ट राजनीतिक फायदा लेने की मंशा से प्रेरित है। कैग पर प्रहार करने वालों में कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह और दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल सबसे आगे रहे। कपिल सिब्बल ने कैग को पवित्र गाय मानने से इन्कार करते हुए कहा, जब प्रधानमंत्री जैसे संवैधानिक पद पर बैठे एक ईमानदार व्यक्ति की आलोचना हो सकती है तो कैग की आलोचना क्यों नहीं हो सकती। आलोचना का इतिहास देखा जाए तो कैग की आलोचना कोई नई बात नहीं है। जब-जब उसकी रिपोर्ट्स सरकार के प्रतिकूल बैठती हैं, तब-तब उसकी आलोचना की जाती है। वर्ष 1960 में तत्कालीन रक्षामंत्री कृष्ण मेनन ने कैग के खिलाफ टिप्पणी की थी। बाद में अवमानना का नोटिस मिलने पर उन्हें अपनी टिप्पणी के लिए खेद प्रकट करना पड़ा था। 1990 के दशक में एक केंद्रीय मंत्री ने सीएजी को विदूषक की संज्ञा दी थी, जो भाजपा आज कैग की रिपोर्ट पर संसद से सड़क तक हल्ला मचाए हुए है, उसी के नेता अरुण जेटली ने 2001 में ताबूत खरीद पर कैग की रिपोर्ट पर कहा था, कैग ने अफवाहों के आधार पर आकलन किया है। राजग सरकार में रक्षामंत्री जार्ज फर्नाडीज ने कैग पर अनैतिक तरीके से काम करने की बात कही थी। इसी तरह 2004 में सेंटूर होटल घोटाले की कांग्रेस द्वारा सीबीआइ जांच की मांग पर भाजपा ने नुकसान के आकलन की कैग की प्रक्रिया पर सवाल उठाए थे। कैग के अधिकार क्षेत्र पर विवादों की लंबी श्रृंखला को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी मील का पत्थर है। इससे यह एक बार फिर प्रमाणित हो गया कि सार्वजनिक धन का उपयोग पारदर्शिता, वित्तीय सूझबूझ और जनहित में हो रहा है या नहीं, यह देखने का अधिकार कैग को है। फिर आज जिस रफ्तार से जीवन के हर क्षेत्र में बाजार का हस्तक्षेप बढ़ रहा है, उसे देखते हुए कैग जैसे संवैधानिक प्रहरियों को मजबूत बनाकर ही संसद, संविधान और लोकतंत्र की रक्षा हो सकेगी।
रमेश दुबे प्रेसिडेंशियल रिफरेंस पर 28 सितंबर को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सरकार ने यह भ्रम पाल लिया था कि प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन के मामले में उसकी नीति सही है। इसीलिए कैग (नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक) को नसीहत और हिदायतें देने का सिलसिला एक बार फिर तेज हो गया था। लेकिन एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने जो टिप्पणी की, उससे सरकार का भ्रम टूट गया। दरअसल, कैग के अधिकार क्षेत्र को चुनौती देने वाली एक जनहित चाचिका को सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ खारिज कर दिया, बल्कि यह भी स्पष्ट कर दिया कि कैग कोई मुनीम नहीं है। वह एक संवैधानिक संस्था है, जो राजस्व आवंटन और अर्थव्यवस्था से जुड़े मामलों की जांच कर सकता है। यदि कैग यह काम नहीं करेगा तो कौन करेगा? कोर्ट ने यह भी कहा कि कैग अपनी रिपोर्ट संसद या संबंधित राज्य विधानसभा को सौंपता है और इन रिपोर्ट्स पर कार्रवाई करने के बारे में फैसला संसद और संबंधित विधानसभाओं को करना होता है। ताजा विवाद की शुरुआत 2जी स्पेक्ट्रम पर कैग की रिपोर्ट से हुई, जिसे संप्रग सरकार ने निराधार ठहराया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के सामने उसकी कोई दलील टिक नहीं पाई और शीर्ष अदालत ने 122 लाइसेंस रद करते हुए पहले आओ, पहले पाओ की नीति को गलत बताने के साथ ही कहा था कि प्राकृतिक संसाधनों का आवंटन प्रतिस्पर्धी बोली के जरिये किया जाना चाहिए। सरकार ने 2जी स्पेक्ट्रम मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरुद्ध पुनर्विचार याचिका दायर करने का मन बनाया था, लेकिन बाद में उसने अपनी याचिका वापस ले ली और इस मामले को प्रेसिडेंशियल रिफरेंस के जरिये सुप्रीम कोर्ट तक ले जाने का निर्णय किया। प्रेसिडेंशियल रिफरेंस के तहत राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट से उसके किसी फैसले की कैफियत पूछ सकते हैं। यह पूरी तरह स्वैच्छिक होता है यानी कोर्ट इस पर राय देने के लिए बाध्य नहीं होता। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर अपनी राय बनाने के लिए राज्य सरकारों, औद्योगिक संगठनों और 2जी स्पेक्ट्रम मामले में याचिका दायर करने वाले दोनों पक्षों से बात की। इसके बाद ही उसने प्राकृतिक संसाधनों की बिक्री पर अपना फैसला सुनाया कि नीलामी प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन का एकमात्र तरीका नहीं हो सकता। इस निर्णय को अपनी जीत मानते हुए कई केंद्रीय मंत्री भारत सरकार के सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी (सीएजी) को कठघरे में खड़ा करने लगे थे। संविधान के प्रहरी इसे संविधान निर्माताओं की दूरदर्शिता ही कहेंगे कि उन्होंने हर महत्वपूर्ण जगहों पर नियंत्रण एवं संतुलन की व्यवस्था के तहत प्रहरी बैठाने का प्रावधान कर रखा है। संविधान निर्माताओं ने इन पहरेदारों को संवैधानिक नियमों का कवच भी पहना दिया ताकि वे कार्यपालिका के दबाव से मुक्त होकर संविधान द्वारा दी गई शक्तियों का प्रयोग करें। चुनाव आयुक्त, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, संघ लोक सेवा आयोग, मुख्य सतर्कता आयुक्त आदि ऐसे ही प्रहरी हैं। लेकिन आजादी के बाद लंबे समय तक ये पहरेदार संविधान के बजाय सरकार की पहरेदारी करते नजर आए। टीएन शेषन से पहले चुनाव आयोग एक गुमनाम-सी संस्था और मुख्य चुनाव आयुक्त कानून मंत्री का पिछलग्गू हुआ करता था, लेकिन जैसे ही टीएन शेषन ने चुनाव आयोग की गरिमा स्थापित करने की कोशिश की, वैसे ही वे सरकार की आंख में खटकने लगे। सरकार ने मुख्य चुनाव आयुक्त के पर कतरने की योजना के तहत तीन चुनाव आयुक्त का नियम बना दिया, जिसमें फैसले बहुमत के आधार पर लिए जाते हैं। जब शेषन फैक्टर का असर अन्य संवैधानिक संस्थाओं पर पड़ने लगा तो सरकार सचेत हो गई और वह इन संस्थाओं पर ऐसे नौकरशाहों को बैठाने लगी, जो उसके हितों के अनुकूल हों। मुख्य सतर्कता आयुक्त के पद पर पीजे थॉमस की नियुक्ति और उसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा अवैध ठहराने से यह साबित हो चुका है। संविधान निर्माताओं ने हिसाब-किताब की रखवाली करने जिम्मेदारी नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल या कैग) की सौंपी है, जिसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। कैग वित्तीय प्रशासन के क्षेत्र में संविधान एवं संसद द्वारा बनाए गए कानूनों का अनुपालन सुनिश्चित करता है। हाल तक कैग को उबाऊ, आंकड़ेबाज और हिसाबी-किताबी संस्था माना जाता था। उसकी रिपोर्ट औपचारिकता मात्र होती थी और ऑडिट टिप्पणियों पर सरकारी विभाग उबासी लेते थे, लेकिन आज उसी कैग से सरकारें हिल रही हैं। इसलिए उस पर तरह-तरह के आरोप भी लगाए जा रहे हैं, लेकिन इससे उसकी विश्वसनीयता बढ़ती ही जा रही है। इस संवैधानिक संस्था पर ताजा हमलों की शुरुआत इस साल 17 अगस्त को हुई, जब कोयला खदानों के आंवटन पर कैग की रिपोर्ट संसद में पेश की गई। रिपोर्ट में कैग ने इस मामले में सरकार की नामांकन नीति की खिंचाई करते हुए इससे सरकारी खजाने को 1.86 लाख करोड़ रुपये के भारी नुकसान होने का अनुमान लगाया है, जिसका लाभ निजी कंपनियों को मिला। कैग ने इस अनुमान के लिए 2010-11 के दौरान दर्ज की गई कोल इंडिया लिमिटेड की औसत उत्पादन लागत और औसत बिक्री मूल्य को आधार बनाया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि विधि विभाग की सलाह के आधार पर 2006 में कोयला ब्लॉकों के आवंटन के लिए नीलामी प्रक्रिया अपनाई जा सकती थी, लेकिन सरकार ने इसे नहीं अपनाया और मनमाने तरीके से आवंटन किया, जिससे सरकार को राजस्व हानि हुई। कैग की रिपोर्ट पेश होने के बाद से संसद में बवाल मचना शुरू हो गया। मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी प्रधानमंत्री के इस्तीफे पर अड़ी रही, क्योंकि जिस समय कोयला खदानों का आवंटन किया गया था, उस दौरान कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री के जिम्मे था। ऐसे में भ्रष्टाचार के इतने बड़े मामले पर प्रधानमंत्री की अनभिज्ञता का सवाल ही नहीं उठता। दूसरी ओर प्रधानमंत्री ने अपनी गलती न मानकर कैग की रिपोर्ट के तथ्यों की सत्यता पर सवाल उठाए और नुकसान के आकलन के आधार को गलत बताया। इसके बाद तो सरकार और कांग्रेस नेताओं की एक टीम ही कैग (विनोद राय) के पीछे पड़ गई। यह आरोप लगाया गया कि कैग की अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं और उनकी रिपोर्ट राजनीतिक फायदा लेने की मंशा से प्रेरित है। कैग पर प्रहार करने वालों में कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह और दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल सबसे आगे रहे। कपिल सिब्बल ने कैग को पवित्र गाय मानने से इन्कार करते हुए कहा, जब प्रधानमंत्री जैसे संवैधानिक पद पर बैठे एक ईमानदार व्यक्ति की आलोचना हो सकती है तो कैग की आलोचना क्यों नहीं हो सकती। आलोचना का इतिहास देखा जाए तो कैग की आलोचना कोई नई बात नहीं है। जब-जब उसकी रिपोर्ट्स सरकार के प्रतिकूल बैठती हैं, तब-तब उसकी आलोचना की जाती है। वर्ष 1960 में तत्कालीन रक्षामंत्री कृष्ण मेनन ने कैग के खिलाफ टिप्पणी की थी। बाद में अवमानना का नोटिस मिलने पर उन्हें अपनी टिप्पणी के लिए खेद प्रकट करना पड़ा था। 1990 के दशक में एक केंद्रीय मंत्री ने सीएजी को विदूषक की संज्ञा दी थी, जो भाजपा आज कैग की रिपोर्ट पर संसद से सड़क तक हल्ला मचाए हुए है, उसी के नेता अरुण जेटली ने 2001 में ताबूत खरीद पर कैग की रिपोर्ट पर कहा था, कैग ने अफवाहों के आधार पर आकलन किया है। राजग सरकार में रक्षामंत्री जार्ज फर्नाडीज ने कैग पर अनैतिक तरीके से काम करने की बात कही थी। इसी तरह 2004 में सेंटूर होटल घोटाले की कांग्रेस द्वारा सीबीआइ जांच की मांग पर भाजपा ने नुकसान के आकलन की कैग की प्रक्रिया पर सवाल उठाए थे। कैग के अधिकार क्षेत्र पर विवादों की लंबी श्रृंखला को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी मील का पत्थर है। इससे यह एक बार फिर प्रमाणित हो गया कि सार्वजनिक धन का उपयोग पारदर्शिता, वित्तीय सूझबूझ और जनहित में हो रहा है या नहीं, यह देखने का अधिकार कैग को है। फिर आज जिस रफ्तार से जीवन के हर क्षेत्र में बाजार का हस्तक्षेप बढ़ रहा है, उसे देखते हुए कैग जैसे संवैधानिक प्रहरियों को मजबूत बनाकर ही संसद, संविधान और लोकतंत्र की रक्षा हो सकेगी।
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