by Surendra Chaturvedi on Wednesday, April 6, 2011 at 4:01pm
देश भर में भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहीम चल पड़ी है। इस बार भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहीम सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीविओं का एक बड़ा वर्ग चला रहा है। सुप्रसिद्ध समाज सेवी अन्ना हजारे ने भी भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए गांधीवादी तरीके से आमरण अनशन की शुरूआत की है, और आश्चर्य इस बात का है कि देश -विदेश में इमानदार प्रधानमंत्री के रूप में पहचाने वाले मनमोहन सिंह ने अन्ना हजारे से अपील की है कि वो इस मुद्दे पर आमरण अनशन ना करें। क्या इसका अर्थ यह लगाया जाना चाहिये कि देश के प्रधानमंत्री नहीं चाहते कि भ्रष्टाचार भारत में मुद्दा बनें, और यह भी कि वे कौन लोग हैं जिनको भ्रष्टाचार के मुद्दा बन जाने से अपने अस्तित्व पर संकट खड़ा होता नजर आ रहा है?
दरअसल, आजादी के बाद से ही शासन व्यवस्था को संभालने वाले अंग्रेंजों के हिन्दुस्तानी उत्तराधिकारियों ने भारत की जनता को शासक और शासित की मानसिकता से ही देखा और सत्ता का इस्तेमाल अपनी विपन्नता को सम्पन्नता में बदलने के लिए एक हथियार के रूप में किया। इन राजनेताओं ने स्वाधीनता सैनानियों के संघर्षो और बलिदानों के साथ ना केवल विश्वासघात किया अपितु भारत की उस बेबस जनता के विश्वास को भी छला जो इनसे आत्मगौरव और स्वाभिमान से युक्त भारत की संकल्पना सजाए बैठे थे। आज हालात यह हैं कि ये राजनेता सत्ता की प्राप्ति के लिए देश के मतदाताओं को ही खरीदने का दुस्साहस करने लगे हैं। अभी जिन पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं, वहां के राजनीतिक दल शराब से लेकर टी वी फ्रिज तक देकर वोटों को खरीदने का ना केवल दुस्साहस कर रहे हैं अपितु अपने इस अपराध में एक हद तक वे सफल भी हो रहे हैं।
इसी कारण पिछले कई सालों से भारत की प्रशासनिक एवं राजनीतिक व्यवस्था को भ्रष्टाचार की दीमक लग चुकी है और भ्रष्टाचार के विरूद्ध आम आदमी में ना केवल गहरी पीड़ा है, अपितु वह मन से आहत भी है। आजादी के बाद बनी पहली सरकार में ही भ्रष्टाचार की बू आने लग गई थी, लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ तब के राजनेताओं की चुप्पी और अनदेखी ने हालात को इतना बिगाड़ दिया कि आज पूरा देश भ्रष्टाचारियों से संत्रस्त है। किसी को यह विश्वास नहीं है कि भारत का प्रशासनिक, न्यायिक और राजनीतिक तंत्र भ्रष्टाचार से मुक्ती की अभिलाषा भी रखता है और इस अविश्वास के पीछे एक ठोस कारण भी है कि भारत की सरकारें आज तक यह सुनिश्चित नहीं कर पाई हैं कि भ्रष्टाचाररियों के लिए सत्ता के प्रतिष्ठानों में कोई भी स्थान नहीं है।
२०१० में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक सर्वे हुआ, ट्रांसपिरेसीं इन्टरनेशनल द्वारा विश्व के १७८ देशो में किये गये इस सर्वे में भारत को ८७ वें स्थान पर पाया गया और इसी संस्था ने यह भी दावा किया कि भारत विश्व के भ्रष्टतम देशो में से एक है। यहां तक कि दक्षिणी एशियाई देशो में भी भारत अपने पड़ोसी देशो (पाकिस्तान -143, बंगलादेश -134, नेपाल-146 और श्रीलंका - 92) से भ्रष्टाचार में बहुत आगे है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक तथ्य और क्या हो सकता है।
एक अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थान इन्टरनेशनल वाच डाग ने अपने अध्ययन में यह पाया है कि 1948 से 2008 तक के 60 सालों में 462 बिलीयन डालर यानी 20 लाख करोड़ से ज्यादा रूपये गैर कानूनी तरीके से भारत के बाहर ले जाए गए। यह राशि भारत के सकल घरेलु उत्पाद का 40 प्रतिशत है। और जिस 2 जी घोटाले को लेकर उच्चतम न्यायालय ने सरकार की नकेल कस रखी है, उससे यह राशि 12 गुना अधिक है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में आर्थिक विशेषज्ञ रहे श्री देव कार के अनुसार 11.5 प्रतिशत की दर से हमारे खून पसीने की कमाई को विदेशी बैंकों में जमा किया जा रहा है। तभी तो स्विस बैंक यह कहते हैं 1456 बिलियन डालर के साथ भारतीयों की
सर्वाधिक मुद्रा उनके बैंकों में जमा है। यह धन भारत पर कर्जे का 13गुना है। इन सब तथ्यों में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि विदेशी बैंकों में जमा इस काले धन का 50 प्रतिशत हिस्सा 1991 में लागू किये गए आर्थिक सुधारों के बाद ही इन बैंकों में पहुंचा, और यह याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि हमारे वर्तमान इमानदार प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ही उस समय वित्त मंत्री के रूप में भारत को अंतर्राष्ट्रीय बाजार बना रहे थे।
देश के प्रति अपराधों की श्रृंखला सिर्फ यहां ही नहीं थम रही है, पीढ़ियों से सत्ता पर काबिज राजनीतिक परिवारों में से एक गांधी परिवार, तमिलनाडू के करूणानिधि या जयललिता, आंध्रप्रदेश के चंद्र बाबू नायडू या स्व. मुख्यमंत्री वाइ एस आर रेड्डी, कर्णाटक के मुख्यमंत्री एस येडडूरप्पा, महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान खाद्य मंत्री शरद पवार, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती, पूर्व मुख्यमंत्री व घोषित समाजवादी मुलायम सिंह और लालू यादव, पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और जम्मू कश्मीर का अब्दुल्ला परिवार ऐसे राजनीतिक परिवारों के रूप में उभरे हैं, जिनकी काली कमाइयो के चर्चे उनके ही दलों के राजनीतिक कार्यकर्ता बड़े ही दंभ के साथ करते हैं, और भारत के लोकतंत्र की यह मजबूरी है कि बिना इन राजनीतिक दलों के सहयोग और सत्ता बंटवारे के कोई भी राजनीतिक दल सरकारें नहीं बना सकता। चाहे वो बोफोर्स खरीदने के मामले में राजीव गांधी को चुनौती देने वाले स्व० विश्वनाथ प्रताप सिंह हों या देश के पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी।
यह भ्रष्टाचार ही तो है कि आजादी के बाद से खरबों रूपये खर्च होने के बावजूद भारत के ग्राम अपनी किस्मत और बदहाली को बदल नहीं पाये हैं। वे पेयजल, सड़क, विद्यालय और चिकित्सालय जैसी आधारभूत सुविधाओं से भी वंचित हैं। देश के विकास में अपना श्रम पसीने की तरह बहा देने वाले मजदूर और किसान बी पी एल कार्ड में नाम लिखवाने के लिए संघर्षरत हैं। मध्यभारत के वनवासियों को विदेशी शक्तियां बंदूकें देकर भारत में ही आंतरिक संघर्षो को बढ़ावा दे रही हैं।
तो आज जब भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का आगाज हो रहा है, तो यह भारत की उसके विदेशी शत्रुओं से लड़ाई नहीं है, यह भारत का भारत के प्रति संघर्ष है। जहां अमीरों की संख्या जिस गति से बढ़ रही है, उतनी ही गति से किसान आत्महत्या कर रहे हैं, देश के 40 करोड़ लोगों को दो समय का निवाला नहीं मिल रहा है, विद्यालयों में जाने वाले छात्रों का प्रतिशत घट रहा है। भारत का प्रतिनिधित्व ऐसे लोगों के हाथों में है जिनके बदन भले ही मंहगी सिल्क के कपड़ों से ढ़के हैं, और उनकी सूरत समृद्ध भारत की चमक तो देती है, पर सीरत से वे ऐसे भारत का निर्माण कर रहे हैं जो बाजार है और यहां पर वही जीवित बचेगा, जिसके पास पैसे हैं चाहे वह हसन अली हो या गांधी परिवार।
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
(लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं।)
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