Saturday, April 30, 2011

हे ! भारत तुम कहाँ हो !





Posted on अप्रैल 28, 2011 by surenderachaturvedi

क्या भारत सिर्फ एक बाजार है ? जहां पर खरीदने और बेचने वाले लोगों का बोलबाला है और क्या यहां सिर्फ पैसा ही पूजा जाता है ? और चूंकि बाजार का उद्देश्य मुनाफा कमाना होता है इसलिये वह किसी भी नियम, नीति और अनीति को नहीं मानता। इसलिये वहां की राज्यसत्ता को देश के आत्मिक संस्कार नहीं बाजार के दलाल संचालित करते हैं। या भारत का कोई सांस्कृतिक अतीत भी है, जो भारत की विद्वता, संस्कार, आत्मिक चेतना, आध्यात्मिक उर्जा और उन सबसे अलग जीवन दर्शन के लिए विश्व में विख्यात था, लेकिन हमारे शासकों की अकर्मण्यता ने भारत के चैतन्यमयी और संस्कारी स्वरूप को नष्ट कर एक बाजार बना दिया।

आश्चर्य तो तब होता है जब देश के राजनेता विदेशों में जाकर अपने देश के संस्कारों की बात नहीं करते, अपने देश की उर्जा और उसकी ताकत की बात नहीं करते, हमारे उच्च मानवीय मूल्यों की बात नहीं करते,अपितु वे बात करते हैं तो ये बताते हैं कि वे कहां और क्या बेच सकते हैं या वे कितना बिक चुके हैं और कितना बिकना बाकी हैं। वे अपने देश को बाजार बनाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। और यही मानसिकता है जो भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार को संरक्षित और पल्लवित करती है।

भारत में जैसे जैसे भ्रष्टाचार का मुद्दा गर्माता जा रहा है,राजनेताओं की छिछालेदार सामने आ रही है, आश्चर्य तो तब होता है जब भारत की राजनीति के प्रेम चौपड़ा कांग्रेस महामंत्री दिग्विजय सिंह हर उस व्यक्ति के कपडे उतारने लग जाते हैं , जो भी भ्रष्टाचार के विरूद्ध अपनी आवाज उठाता है और पूरी कांग्रेस पार्टी में एक भी ऐसा नेता नहीं है जो उनसे कहे कि वे अपना अर्नगल प्रलाप बंद करें। तो क्या यह नहीं माना जाना चाहिये कि दिग्विजय सिंह 10, जनपथ के इशारे पर ये सब हरकतें कर रहे हैं। समझ में नहीं आता कि वे किसके सामने अपनी निष्ठां दिखाना चाहते हैं. सोनिया गाँधी के प्रति या भारत के प्रति।

भारत की सबसे बड़ी त्रासदी यह रही है कि हम सिर्फ संकटों के समय में ही एकजुटता दिखा पाये हैं। भारत का नागरिक देश के मान अपमान को राजाओं का विषय मानता आया है। इन्हीं कुछ राजाओं के कारण भारत सिकुड़ता चला गया। नोबल पुरूस्कार प्राप्त सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री वी एस नायपाल ने अपनी पुस्तक ’भारत – एक आहत सभ्यता‘ में हमारे राष्ट्रीय चरित्र की व्याख्या करते हुए लिखा है कि ’’कहा जाता है कि सत्रह वर्ष के एक बालक ने नेतृत्व में अरबों ने सिंध के भारतीय राज्य को रौंदा था, उस अरब आक्रमण के बाद से भारत सिमट गया है। अन्य कोई सभ्यता ऐसी नहीं, जिसने बाहरी दुनिया से निपटने के लिए इतनी कम तैयारी रखी हो। कोई अन्य देश इतनी आसानी से हमले और लूटपाट का शिकार नहीं हुआ। शायद ही ऐसा कोई और देश होगा, जिसने अपनी बर्बादियों से इतना कम (सबक) सीखा होगा।‘‘ श्री वी एस नायपाल को साहित्य के लिए 2001 में नोबल पुरूस्कार प्रदान किया गया था। उनके पुरूखे भारत से गिरमिटिया मजदूर की तरह त्रिनिदाद चले गये थे । श्री नायपाल को उनके त्रिनिदाद का नागरिक होने पर गर्व भी है। लेकिन वे अपने पुरूखों की मातृभूमि के रखवालों की मानसिकता से पेरशान हैं। श्री नॉयपाल ने साबित कर दिया कि यही वो कारण है कि हमने अपने मान सम्मान को भारत के मान अपमान से ज्यादा बड़ा समझा ।

आज स्थिती यह है कि हमारे राजनेता, जो कोई भारत के मान सम्मान के लिए बोलता है, उसे सांप्रदायिक कहने और साबित करने में पल भर की भी देरी नहीं लगाते। इसी कारण आज कश्मीर में पाकिस्तान के हौंसले बुलंद है। इसी कारण 15 अगस्त 1947 को प्राप्त बंटे हुए भूभाग में से एक लाख वर्ग किलोमीटर मातृभूमि को पाकिस्तान और चीन दबाये बैठे हैं। इसे समझे जाने की जरूरत है कि आज हम जिस भारत को दुनिया के मानचित्र पर देखते हैं, सिर्फ वही भू भाग भारत नहीं है। वर्तमान ईरान (जिसे पहले आर्यन कहा जाता था ) से लेकर सुमात्रा, बाली इंडोनेशिया तक के द्वीप भारत की विशालता की कहानी कहते हैं। हजार सालों के विदेशी आक्रमण के बाद भारत बंटता चला गया और हमारे देश का राजनीतिक नेतृत्व अपने स्वार्थ और सत्ता के दंभ में भारत को एक नहीं रख पाया और स्थिति आज यहां तक है कि कश्मीर के जिस हिस्से को हम अपने मानचित्र में दर्शाते हैं, वहां भारत की सेना भी नहीं जा सकती, आम भारतीय के जाने की बात तो बहुत दूर है। हमारे शासक उस एक एक इंच मातृभूमि को वापस लाने की बात तक नहीं करते।

आज भी भारत के शासक अपने इस झूठे दंभ और अहंकारी मानसिकता से बाहर नहीं आ पाये हैं। इसी कारण हम तिल तिल कर मारी जा रही मातृभूमि के दैवीय स्वरूप को स्वीकार नहीं करते, अपितु इसे सिर्फ एक बाजार के रूप में ही देखते हैं। प्रश्न उठता है कि यदि भारत एक बाजार है, तो इसके नागरिक क्या हैं ? क्या भारत के नीति नियंताओं को यह भी समझाना पडेगा कि मातृभूमि और मां में बाजार नहीं संस्कार देखे जाते हैं। ये बात तो विदेशी मूल की सोनिया गांधी भी समझती हैं, पर हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, गृह मंत्री पी चिदंबरम, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और उनके भौंपू दिग्विजय सिंह, अभिषेक मनु सिंघवी और मनीष तिवारी को क्यों समझ नहीं आती?

इसका कारण है हमारी तथाकथित शिक्षा। जिसने हमें हमारी अस्मिता से विलग कर दिया है। ब्रिटिश शिक्षा शास्त्री और राजनेता लार्ड मैकाले की भविष्यवाणी सही साबित हुई। आज से लगभग 175 साल पहले भारत का वर्णन करते हुए लार्ड मैकाले ने 2 फरवरी1835 को ब्रिटिश संसद को संबोधित करते हुए कहा था कि ’’ मैंने भारत की सभी जगह देखी हैं, मैंने इस यात्रा के दौरान एक भी ऐसे व्यक्ति को नहीं देखा जो भीख मांगता हो या चोर हो। उनके चरित्र बहुत उज्जवल हैं, वे बहुत योग्य और कर्मठ हैं। यही उनकी संपदा है। मुझे नहीं लगता कि हम इस देश को कभी जीत पायेंगें, जब तक कि हम इस देश के मेरूदण्ड़ को ना तोड़ दें, जो कि इस देश की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक ताकत है। और इसलिये मैं उनके सांस्कृतिक, पुरातन और प्राचीन शिक्षा व्यवस्था को बदलने का प्रस्ताव रखता हूं । यदि भारतीय यह सोचने लग जाएं कि जो विदेशी और इंग्लिश है वह ही अच्छा है, और उनकी संस्कृति से बेहतर है तो वे अपनी आत्मिक उर्जा और अपनी परंपराओं को खो देंगें और तब वे वैसे बन जाएंगें जैसा कि हम चाहते हैं।‘‘

लार्ड मैकाले ने मात्र 175 सालों में वो कर दिखाया जो अनेको हमले और हजारों साल की गुलामी भारत को ना कर सकी। सांस्कृतिक और आत्मिक चेतना से परिपूर्ण भारत की जगह एक बाजार ने ले ली है। विडम्बना यह है कि जिन सपूतों को मां के आंचल की रक्षा करनी चाहिये, वे उसके आंचल को उघाड़ कर उसमें बाजार ढूंढ़ रहे हैं। तो जब बाजार ही मां के आंचल की बोली लगायेगा, तो पड़ोसी के घर भले ही चूल्हा ना जले, पर अपनी शाम रंगीन होगीं हीं और भारतमाता का एक पुत्र दूसरे पुत्र की मदद करने की एवज में रिश्वत मांगें तो उसमें कैसा आश्चर्य? हे भारत तुम कहां हो, जिसकी रक्षा के लिए हमारे पूर्वजों ने जान की बाजी लगा दी थी।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी

लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं।

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